हिंदी नाटक का उद्भव – हिंदी नाटकों की वास्तविक शुरुआत तो ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ के युग से ही मानी जाती है। लेकिन इससे पूर्व भी कुछ नाटय कृत्यों का उल्लेख मिलता है। जिसके कारण इतिहासकारों में यह सवाल भी हमेशा से रहा है कि ‘हिंदी का प्रथम नाटक किसे माना जाए ?’ कई विद्वानों ने हिंदी का प्रथम नाटक ‘भारतेंदु’ के पिता ‘गोपालचंद्र गिरिधरदास’ द्वारा रचित ‘नहुश’ को माना, तो कइयों ने ‘महाराज विश्वनाथ’ के ‘आनंद रघुनंदन’ नामक नाटक को। ऐसे ही कोई ‘शीतला प्रसाद त्रिपाठी’ के ‘जानकी मंगल’ को मानते हैं तो कोई ‘नेवाज’ कृत ‘शकुंतला’ नामक नाटक को। इस प्रकार देखा जाए तो यहाँ भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद मिलता है लेकिन अधिकांश विद्वानों ने ब्रजभाषा में लिखे गए ‘आनंदरघुनन्दन’ नामक नाटक को ही हिंदी का प्रथम नाटक स्वीकार किया है, क्योंकि इसमें नाटक के तत्वों के रूप में कथोपकथन, अंक विभाजन, रंग संकेत आदि मिलते हैं और साथ ही शास्त्रीय नियमों को ध्यान में रखते हुए नान्दी, भरत वाक्य आदि का प्रयोग भी किया गया है, इसलिए विद्वानों ने इसे ही हिंदी का प्रथम नाटक माना है।
नाटय-रचना की दृष्टि से आधुनिक युग के नाट्य साहित्य को चार भागों में बांट सकते हैं –
1- भारतेन्दु युग ( सन् 1850 से 1900 तक )
2- प्रसाद युग (सन्1900 से 1936 तक )
3- प्रसादोत्तर युग ( सन् 1936 से 1955 तक )
4- स्वातन्त्र्योत्तर युग ( सन् 1955 से अब तक )
● भारतेन्दु युग – आधुनिक हिंदी नाटक का जनक ‘भारतेंदु’ जी को ही माना जाता है। भारतेंदु जी बाल्यावस्था से ही अद्भुत काव्य-प्रतिभा से संपन्न थे। उन्हें बाल्यावस्था में ही कई नाट्य शैलियाँ जैसे ब्रज में रामलीला, उत्तर भारत में रामलीला, जन नाटक, यात्रा नाटक आदि पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त हुई थी। देश भ्रमण के कारण उनके विचारों में परिवर्तन आया उन्हें लगने लगा कि अपने भावों और विचारों को जनता तक पहुंचाने का सशक्त साधन ‘नाटक’ है। नाट्य रचना की और उनका आकर्षण बढ़ता गया। अब उनके सामने समस्या उठी की सर्वप्रथम कौन सा नाटक लिखा जाए ? वह लिखते हैं मुझे ‘शकुंतला और रत्नावली दो संस्कृत नाटक सबसे अच्छे प्रतीत हुए।’ ‘शकुंतला’ नाटक का अनुवाद हो चुका था तब उन्होंने ‘रत्नावली’ का अनुवाद किया। इसके साथ खड़ी बोली हिंदी नाटकों का उदय हुआ और यह प्रारंभ सच्चे अर्थों में भारतेंदु से हुआ इसलिए हिंदी नाटकों के आरंभिक काल को ‘भारतेंदु काल’ कहा जाता है उन्होंने सर्वप्रथम ‘नाटक’ शीर्षक से निबंध लिखकर ‘नाटक’ को एक संगठन बनाकर अनुदित और मौलिक नाट्यलेखन की परंपरा शुरू की। इस प्रकार उन्होंने हिंदी नाटकों को सही दिशा दी। उनका प्रथम नाटक ‘विद्यासुंदर’ भी किसी बांग्ला नाट्यकृति का अनुवाद है। भारतेंदु जी के लगभग सत्रह नाटकों में से प्रमुख नाटक इस प्रकार हैं- ‘पाखंड विडंबन’ , ‘वैदिक हिंसा हिंसा ना भवति’ , ‘भारत जननी’ , ‘मुद्रा राक्षस’ , ‘धनंजय विजय’ , ‘सत्य हरीश चंद्र’ , ‘प्रेमजोगनी’ , ‘चन्द्रावली’ , ‘कपूर मंजूरी’ , ‘भारत दुर्दशा’ , ‘नीलदेवी’ , ‘अंधेर नगरी’ व ‘सतिप्रताप’ आदि।
भारतेंदु काल में रचित नाटकों में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, रोमानी, समयिक प्रधान नाटक व प्रहसन लिखे गए हैं। भारतेन्दु जी की नाट्य संबंधी विशेषताओं को निरूपित करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है –
“भारतेंदु के नाटक में सर्वत्र पहले इस बात पर ध्यान दिया जाता है की उनकी सामग्री, जीवन के कई क्षेत्रों से ली है। ‘चन्द्रावली’ में प्रेम का आदर्श है। ‘नीलदेवी’ में पंजाब के एक हिन्दू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई का ऐतिहासिक वृत ले कर लिखा गया है। ‘भारत दुर्दशा’ में देश की दशा बहुत ही मनोरंजक ढंग से सामने लाई गई है। ‘प्रेमजोगनी’ में भारतेंदु जी ने वर्तमान पाखंडमय धार्मिक और सामाजिक जीवन के बीच अपनी परीस्थिति का चित्रण किया है।”
इस प्रकार भारतेन्दु जी ने अपने नाटकों में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक समस्याओं को अंकित किया है। वह धर्म के नाम पर होने वाली कुरीतियों पर प्रहसनों द्वारा तीखा व्यंग्य करते हैं। ‘भारत – दुर्दशा’ में भारत की दुर्दशा का कारुणिक चित्रण अनोखी शैली में किया गया है। वो अपने सम सामायिक लेखकों को भी सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं पर नाटक लिखने के लिये प्रेरित करते हैं। श्रीनिवास दास ने ‘रणधीर’ एवं ‘प्रेम मोहिनी’ , राधाकृष्ण दास ने ‘दुःखिनी बाला’ तथा ‘महाराणा प्रताप’ , बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ ने ‘भ्रातसौभाग्य’ , पं. प्रताप नारायण मिश्र ने ‘भारत दुर्दशा’ आदि नाटकों की रचना की। इन नाटकों में समाज सुधार तथा ‘देश प्रेम’ व ‘देश भक्ति’ का विषय लेकर हल्की फुल्की शैली में रचनाएँ की गई है।
● प्रसाद युग – भारतेंदु द्वारा स्थापित की गई ‘नाटक’ की परंपरा को जयशंकर प्रसाद ने नव जीवन एवं नई दिशा प्रदान की। प्रसाद जी ने सस्ती जनरुचि वाले रंगमंच के स्थान पर साहित्यिक रंगमंच की कल्पना की। उनके द्वारा परिणित नाटक हैं – ‘सज्जन’ , ‘कल्याणी परिणय’ , ‘एक घूँट’ , ‘कामना’, ‘जनमजेय का नागयज्ञ’ , ‘स्कंदगुप्त’ , ‘चंद्रगुप्त’ , ‘धुरुवस्वमनी’ आदि।
प्रसाद जी ऐतिहासिक नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने देश के गौरवमय अतीत को अपने नाटकों का विषय बनाया। भारतीय संस्कृति, समृद्धि, शक्ति एवं औदात्य के सुनहरे चित्र इनके नाटकों में अंकित हुए हैं, किन्तु यह कहना संभवत: भूल होगी की प्रसाद जी का लक्ष्य केवल देश के ऐतिहासिक गौरव को प्रस्तुत करना था, वास्तविक तथ्य यह है कि प्रसाद जी इतिहास की प्राचीन घटनाओं के माध्यम से वर्तमान की समस्याओं का चित्रण करना चाहते थे। उनके नाटकों में भारतीय काव्य-शास्त्र एंव पाश्चात्य काव्य-शास्त्र का अद्भुत समन्वय है। इस दृष्टि से ‘स्कंदगुप्त’ , ‘चंद्रगुप्त’ एवं ‘धुरुवस्वामनी’ प्रमुख नाटक माने जाते हैं। प्रसाद जी के हृदय में देश की पराधीनता के प्रति गहरी व्यथा विद्यमान थी। इसका सशक्त निरूपण ‘चन्द्रगुप्त’ में मिलता है। प्रसाद जी का ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक मूलतः ऐतिहासिक नाटक है, किन्तु इसका विशेष महत्त्व समस्या-नाटक के रूप में है।
प्रसाद के नाटकों में पर गौर करने पर हम पाते हैं कि उनके नाटकों में उनके नाटककार के साथ उनका कवि – दार्शनिक व्यक्तित्व घुल मिल गया है यही कारण है कि उनके नाटकों में गीतिमयता के अतिरिक्त एक सहज काव्यात्मक प्रभाव भी देखने को मिलता है। जिस प्रकार प्रसाद की नाट्य चेतना का विकास नवजागरण की पृष्ठभूमि में हुआ उसी प्रकार उनकी रंग चेतना का विकास भी। उन्होंने पारसी रंगमंच की व्यवसायिकता और मनोरंजक के आग्रह के विरूद्ध अपने नाटकों के जरिए हिंदी के जातीय रंगमंच के विकास की संभावनाओं को तलाशने की कोशिश की। स्पष्ट है कि प्रसाद न केवल हिंदी नाटक की दिशा को परिवर्तित करते हैं बल्कि उसके विकास की भी दिशा को भी निर्देशित करते हैं इसीलिए उन्हें हिंदी नाटक की केंद्रीय धुरी माना जाता है।
प्रसाद युग के अन्य नाटक हैं – हरिकृष्ण प्रेमी के ‘स्वर्णविहान’, ‘रक्षाबंधन’, ‘पाताल विजय’, ‘शिवासाधना’, लक्ष्मी नारायण मिश्र के ‘अशोक’, ‘सन्यासी’, ‘मुक्ति का रहस्य’, ‘राजयोग’, ‘सिंदूर की होली’, किशोरीदास वाजपेयी कृत ‘सुदामा’, पंडित गोविंद वल्लभ पंत के ‘वरमाला’, ‘राजमुकुट’, सेठ गोविंद दास का ‘कर्तव्य’, प्रेमचंद के ‘करबला’, ‘संग्राम’ आदि। लेकिन इस दौर के अन्य नाटक कारों में प्रसाद वाली कलात्मकता का अभाव है इसी कारण इन्हें वैसी सफलता नहीं मिल पाई जैसी प्रसाद को मिली।
● प्रसादोत्तर युग – यह युग लगभग सन 1936 से 1950 अर्थात् लगभग 15 वर्षों तक रहा है और इस अल्प नाट्य रचना के अंतराल ही इस दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित हुए हैं। यह काल-खंड प्रसाद युग के समापन का युग है और प्रारंभ प्राय: भुवनेश्वर से होता है और इस समय की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि नाटक के शिल्प और वस्तु दोनों ही स्तर से नाट्य विधान में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। या ये कहें कि अब आधुनिकता की पृष्ठभूमि में हमारे हिंदी नाटककार जीवन के यथार्थ से जुड़ कर एक नवीन दिशा में अग्रसर हुए। क्योंकि प्रसाद के समय हिंदी नाटकों में आदर्श से आधारित की ओर संक्रमण देखने को मिलता है और समस्या नाटक को के जरिए हिंदी नाटक यथार्थवाद के धरातल पर प्रतिष्ठित होता है। जैसे उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ ने नाटक को ‘रोमानियत’ के कुहासे से निकालकर आधुनिक भावभोध के साथ जोड़ा। इस दृष्टि से उनका ‘छठा बेटा’ उल्लेखनीय नाटक है। ‘कैद’ , ‘उड़ान’ , ‘अंजो दीदी’ उनके अन्य यथार्थ प्रधान नाटक है। ऐसे ही विष्णु प्रभाकर कृत ‘डॉक्टर‘ इसी अवधि का बहुचर्चित नाटक है। यह मनोवैज्ञानिक धरातल पर अवस्थित सामाजिक नाटक है। जीवन की जटिल अनुभूतियों का सूक्ष्म विश्लेषण जगदीश चन्द्र माथुर ‘कोणार्क’ में लक्षित होता है। ‘शारदिया’ उनका दूसरा नाटक है। इस युग के अन्य ऐतिहासिक नाट्यकार वृंदावनलाल वर्मा हैं। इन्होंने ‘राखी की लाज ‘, ‘ कश्मीर का काँटा ‘ , ‘ झाँसी की रानी ‘ , ‘ हंस मयूर ‘ आदि ऐतिहासिक नाटकों की रचना की।
● स्वातन्त्र्योत्तर युग : आधुनिक भावबोध को रूप देने वाले नाटककारों में डॉक्टर धर्मवीर भारती की विशेष भूमिका रही। उनका ‘अंधा युग’ गीति – नाट्य इस युग कीउल्लेखनीय नाटय रचना है। इसमें हर युग की युद्ध जन्नय त्रासदी है।
डॉक्टर लक्ष्मी नारायण लाल के प्रमुख सामाजिक, मनोवैज्ञानिक नाटकों में – अंधा कुंवा, तीन आँखों वाली मछली, सुंदर रस, रक्त कमल , रातरानी , दर्पण , अभिमन्यु , कलंकी आदि हैं। ‘ मादा कैक्टस ‘ में प्रेम विवाह को कलात्मक दृष्टी से देखने का प्रयत्न है तथा ‘ सुंदर रस ‘ , ‘ सूखा सरोवर ‘ प्रतीकात्मक नाटक हैं।
सेठ गोविंद दास ने ‘हर्ष’, ‘प्रकाश’, ‘सेवापथ’, ‘दुःख क्यों’ आदि नाटकों में दार्शनिक एवं नैतिक समस्याओं को उजागर करने का प्रयतन किया है।
मोहन राकेश कृत – ‘आषाढ़ का एक दिन’ , ‘लहरों के राजहंस’ तथा ‘आधे – अधूरे’ में मानवीय संबंधों की ट्रेजडी को रचनात्मक ढंग से आंका गया है । ‘लहरों के राजहंस’ राग – विराग के संघर्ष पर आधारित है। इसका कथानक अश्वघोष के ‘सौन्दरआनंद’ से चुना गया है। ‘आधे – अधूरे’ में समाज की विसंगतियों से जूझने का प्रयास है।
इस युग के अन्य नाटकों में हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ का ‘साँपों की सृष्टि’, अक्षय कुमार का ‘डूबते तारे’, राजकुमार का ‘काली आकृति’ आनंद प्रकाश जैन का ‘मास्टर जी’, राजेंद्र शर्मा का ‘रेत की दीवार’ ने हिन्दी नाटक साहित्य को समृद्ध किया है।
निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन से हिंदी नाटकों का क्रमिक विकास स्पष्ट है। भारतेंदु युग से अबतक अनेक विशिष्ट नाटककारों ने इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। भारतेन्दु हरीश चंद्र, जयशंकर प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, किशोरी दास वाजपेयी, उदयशंकर भट्ट ने विविध विषयों पर नाटक लिख कर इस क्षेत्र में विशेष सहयोग दिया।