रीतिकाल की परिस्थितियों का विवेचन

रीतिकाल की प्रमुख परिस्थितियों का विवेचन कीजिए। | Hindi Stack
हिंदी-साहित्य के उत्तर-मध्यकाल में श्रृंगार प्रधान लक्षण ग्रंथों को अधिकता है। यही कारण है कि रीतिकाल के नामकरण के विषय में विद्वानों में मतभेद रहा। मिश्रबंधु ने इसे ‘अलंकृत काल’ नाम दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘रीतिकाल’ कहा तथा डॉ० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र रीतिकाल को ‘श्रृंगार काल’ कहते हैं। वास्तविकता यह है कि श्रृंगारपरक रचनाओं के कारण इसे ‘श्रृंगार काल’ कहा गया तथा लक्षण संबंधी ग्रंथों की रचना के कारण ‘रीतिकाल’ संज्ञा मिली। आचार्य शुक्ल के ‘रीतिकाल’ नाम पर आपत्ति उठाए जाने का प्रमुख कारण है कि रीतिकाल में प्रमुखतः तीन प्रकार के ग्रंथों की रचना हुई –
    • रीतिसिद्ध
    • रीतिबद्ध
    • रीतिमुक्त।
लक्षणग्रंथों के अतिरिक्त इस युग में श्रृंगार, नीति एवं धर्म संबंधी रचनाओं की बहुलता मिलती है, अतः केवल रीतिपरक रचनाओं के आधार पर इसका नामकरण नहीं होना चाहिए। इस युग में श्रृंगारपरक रचनाओं के अतिरिक्त भी बहुत प्रकार की रचनाएं हुई। अतः श्रृंगार काल नाम भी अधिक उपयुक्त नहीं है। डॉ० रमा शंकर शुक्ल का ‘कलाकाल’ अभिधान भी इस काल की सभी प्रवृत्तियों को लक्षित करने में असमर्थ है। इन सब का प्रतिनिधित्व करने वाला रीतिकाल नाम ही अधिक सार्थक एवं सर्वमान्य है आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं-

“हिंदी काव्य पूर्ण प्रौढ़ता को पहुंच गया था।”

स्वभावतः इस काल की रचना में काव्य में वस्तु की अपेक्षा रूप या आकार को ही प्रधानता मिलती रही। कहना न होगा कि रीति शब्द का यह विशिष्टता मूलक प्रयोग हिंदी का अपना प्रयोग है। कारण, रीतिकाव्य के अनेक कवियों ने प्रायः काव्यरीति, अलंकार रीति आदि का इसी अर्थ में प्रयोग किया है:
  • अपनी-अपनी रीति के काव्य और कविरीति (देव, शब्द रसायन)
  • काव्य की रीति सिखी सुकवीन सो (भिखारीदास, काव्य निर्णय)
  • कविता रीति कछु कहत हौं व्यंग्य अर्थ चितलाय (प्रतापसाहि, व्यंग्यार्थ कौमुदी)
पद्माकर ने अपने ग्रंथ ‘पद्माभरण’ में अलंकार चर्चा को स्पष्ट रूप से ‘अलंकार रीति’ नाम दिया। इसी आधार पर मिश्र बंधुओं ने इस काल का नामकरण ‘अलंकृत’ काल किया। अत: रीतिकाल का रीति शब्द आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मौलिक आविष्कार नहीं है-यह शब्द परंपरा में पहले से ही आ रहा था। केवल आचार्य शुक्ल ने इस रीति शब्द को व्यवस्थित अर्थ भर दिया।
शुक्ल जी के ‘रीतिकाल’ को आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘शृंगारकाल’ नाम दिया। परंतु हिंदी में यह नाम ग्रहण नहीं किया गया। हिंदी के अधिकांश विद्वान रचना संबंधी नियमों के विवेचन के कारण इस काल को ‘रीतिकाल कहना ही समीचीन समझते हैं। यहाँ रीति का मतलब ‘पैटर्न’ से है, इस काल में एक ही ढर्रे पर कविता लिखी गयी, पहले काव्य के लक्षण देना और फिर स्वनिर्मित उदाहरण देना । अधिकांश कवियों ने इसी पद्धति पर कविता लिखी। इन कवियों ने शृंगार को अपना मुख्य विषय बनाया। इस विषय के लिए मुक्तक काव्य रूप का सहारा लिया गया। अलंकारों का व्यापक प्रयोग इस काल की कविता में हुआ है। इस काल की कविता पर तत्कालीन सामंतों की विलासी मनोवृत्ति का प्रभाव था। कवि दरबार में रहते थे और अपने आश्रयदाता के मनोरंजन के लिए कविता लिखते थे। इस कारण विषय और प्रस्तुतीकरण दोनों ही दृष्टियों से इस काल की कविता हासोन्मुख हुई।
रीतिकाव्य सामंतों के आश्रय में लिखा गया। अतएव उसकी अंतःप्रेरणा के स्वरूप को कवियों और आश्रयदाताओं दोनों के पारस्परिक संबंध ज्ञान से ही समझा जा सकता है। वास्तव में, हिंदी रीतिकाव्य परंपरा हिंदी प्रदेशों के विकृत सामंतवाद की विशिष्ट अभिरुचि की परंपरा है। यह सामंत वर्ग ब्रजभाषा काव्य के अभ्युदय से पहले ही यहाँ विद्यमान था। इसलिए यह परंपरा पहले संस्कृत में मिलती है। यही परंपरा समय पाकर केशवदास, चिंतामणि में फूट पड़ती है। जिस समाज में यह साहित्य रचा गया उसका नेतृत्व सामंतों के हाथ में था, उन्हीं के दरबारी कवियों ने उसे पोषित किया। अतः वह ‘दरबारी काव्य जनता की काव्य रुचि’ का प्रतीक नहीं है। इन सब बातों की जानकारी आप इस इकाई में प्राप्त करेंगे। अगले खंड की इकाइयों में आप रीतिकालीन प्रतिनिधि कवियों का अलग से अध्ययन करेंगे। प्रस्तुत इकाई को पढ़ने के बाद रीति काव्य एक स्वरूप आपके सामने स्पष्ट होगा। इसके बाद आप कवि की रचनाओं को अच्छी तरह समझ सकेंगे।

रीतिकाल की परिस्थितियाँ

रीति काल का समय आचार्य शुक्ल ने संवत 1700 से 1900 तक माना है। हर युग की भांति इस युग की परिस्थितियों ने भी रीतिकाल के साहित्य को प्रभावित किया है। रीतिकाल की परिस्थितियों का विश्लेषण इस प्रकार है-

(1) राजनीतिक परिस्थितियाँ:

रीतिकाल में मुगल-शासन अपने पूरे वैभव पर था। इसे मुगल-साम्राज्य के उत्थान-पतन का काल कहना उचित होगा। विलासप्रियता ने इस शासन को पतन की ओर धकेलना प्रारंभ कर दिया था। मुगल-सम्राट कला से विशेष प्रेम रखते थे, अतः कला को इस युग में बहुत उत्कर्ष मिला। यह चित्रकला, वास्तुकला, साहित्य एवं संगीत के चरमोत्कर्ष का समय था। कलाकारों, संगीतकारों एवं साहित्यकारों को राज्याश्रय प्राप्त था तथा यह भी मुगल राजाओं की प्रशंसा में कृतियों की रचना करते थे। अकबर से शाहजहां तक सभी बादशाहों ने कला एवं कलाकार का सम्मान किया, किंतु औरंगजेब ने अन्यायपूर्ण नीतियों ने मुगल साम्राज्य की मजबूत नींव को हिला दिया।
वहीं जसवंत सिंह के मरते ही मेवाड़ और मारवाड़ ने मुगलों के खिलाफ हल्ला बोल दिया। पंजाब में सिक्खों का असंतोष तीव्र हुआ- गुरु तेग बहादुर तथा गुरु गोविंद सिंह के पुत्रों की हत्या को लेकर सिक्ख जाति बेचैन हो गई। दक्षिण की दशा और भी खराब थी। इस काल में मराठा शक्ति का उदय हुआ। नादिरशाह का तेज हमला हुआ और सेना अपना पराक्रम खो बैठी। इस माहौल में बंगाल का अलावर्दी खां और दक्षिण में आसफजाह स्वतंत्र हो गए। कुछ दक्षिण के सामंत गृह कलह में उलझ गए और अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली के हमले शुरू हो गए। उसने मराठों की शक्ति को ध्वस्त किया और अंग्रेजों का व्यापार फैलाने का अवसर मिला। अंग्रेजों का आधिपत्य उत्तरी भारत में फैला और मुगल साम्राज्य दिल्ली आगरा तक सीमित हो गया।
इस समय का इतिहास भी दरबारों-अंतःपुरों के षड्यंत्र का इतिहास ही बनकर रह गया। इस प्रकार पूरा देश युद्धों और गृह कलह से पीड़ित हो उठा, जिसके कारण व्यवस्था पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गई। औरंगजेब के व्यक्तित्वहीन संतानें पैदा हुईं, जो कर्मचारियों के हाथों खिलौना बनकर टूट गए। राजनीतिक स्थिति का इस काल में पूरा चित्र यह बन गया कि देश पदाक्रांत, विलास, जर्जर और विकृत सामंतवाद की इच्छाओं का पतन-प्रतीक बन गया। औरंगजेब ने अन्यायपूर्ण नीतियों ने मुगल साम्राज्य की मजबूत नींव को हिला दिया। इस विघटनपूर्ण परिस्थिति में आंतरिक शासकों ने स्वतंत्र होकर विलास का आश्रय लिया। कवी, संगीतकारों ने भी उनकी प्रसन्नता का ध्यान रखते हुए रचना की। विलासप्रिय राजाओं के आश्रय में रहने वाले कवि श्रृंगारिक रचनाएँ करते थे तथा देशभक्त राजाओं की छत्रछाया में रहने वाले कवियों ने उनकी प्रशंसा में ओजगुणयुक्त काव्यों की भी रचना की।

(2) सामाजिक परिस्थितियाँ:

राजनीतिक परिस्थितियों की भांति इस युग की सामाजिक परिस्थितियाँ भी सोचनीय थी। समाज निरंतर पतन की ओर अग्रसर था। इस काल में सामंतवाद के कारण शोषण की प्रवृति बढ़ने लगी। समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया-एक वर्ग शोषकों का था तथा दूसरा वर्ग शोषितों का। नारी की दशा भी सोचनीय थी। वह केवल विलासिता की वस्तु बन कर रह गई। नारी को भोग्या समझे जाने के बाद उस काल का साहित्य श्रृंगार सम्मत रचनाओं की ओर झुकने लगा। रीति काल में अंधविश्वास एवं रूढ़िवादिता का दैत्य विकराल हो कर समाज को निकलने लगा। समाज का धनीवर्ग अपने शासकों की भांति सुरा-सुंदरी का पुजारी बन गया। इसी प्रकार रीतिकाल के सामाजिक परिस्थितियों ने साहित्य को भी प्रभावित करना आरंभ कर दिया। विलास के पुजारी कविगण अधिक धन की लिप्सा में आश्रयदाताओं की प्रसन्नता के लिए श्रृंगारिक साहित्य-वर्णन में प्रवृत्त हो गए।

(3) धार्मिक परिस्थितियाँ:

उपर्युक्त सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का धर्म पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। नैतिकता के छिन्न-भिन्न हो जाने से धर्म के सत्य स्वरूप को भी पाखंडप्रियता ने घेर लिया। भक्तिकाल में धर्म की स्थापना हेतु सूर, तुलसी प्रभृति कवियों द्वारा किए गए प्रयास धूमिल पड़ने लगे। रामभक्ति शाखा एवं कृष्णभक्ति शाखा के कवियों ने अपने ईश्वर को भी श्रृंगार में डुबो दिया। कृष्ण तो केवल साधारण विलासी युवक बनकर रह गए तथा राधा का दिव्यत्व अपनी चमक होकर अपनी चमक होकर साधारण कामिनी के रूप में बदल गया। इस काल के कवि जब अतिशेष श्रृंगार से घबरा जाते थे तब अपने मन की स्थिरता हेतु भक्तिप्रधान रचनाएं करते थे। समय के साथ साथ इस युग का धर्म अंधविश्वास का पर्याय बन गया। अशिक्षित जनसमुदाय के लिए भक्तिभावना धर्म के बाह्यांगों तक सीमित थी। ये अपने अंधविश्वास के कारण संतों और पीरों के पास जाते थे और सब प्रकार की रीतियों और अंध परंपराओं का पालन करते थे। ये संत और पीर भोली-भाली जनता का खूब शोषण करते थे। इसके अतिरिक्त इस काल में ‘अवतारों की लीलाओं का खूब प्रचलन हुआ। कृष्ण लीला और राम लीला का प्रचलन बढ़ा।
इस प्रकार जनता की धर्म भावना उनके मनोविनोद का साधन भी बन गया। भक्तिकाल में माध्व, निंबार्क, चैतन्य तथा बल्लभ संप्रदायों में राधा की भक्ति भाव से प्रधानता थी किंतु इस काल में राधा को परकीया भाव की नायिका मात्र रह जाना पड़ा। नायिका-नायक भेद को रीतिकाल के कवियों ने परकीया भाव में खोल लिया और कहा

‘आगे के सुकवि रीझि हैं तौ कविताई,न तो राधिका कान्ह सुमिरन को बहानो है।

इस काल की कविता में भक्ति का यही रूप सामने आता है। इस युग के कवि सूरदास और नन्ददास की परंपरा का अनुकरण नहीं कर रहे थे, बल्कि उनकी शृंगारिकता को विकृत रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। यह उस काल के बौद्धिक हास का परिणाम है।

(4) साहित्यिक परिस्थितियाँ:

आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से समाज दो वर्गों में विभक्त था–
  • उत्पादक वर्ग
  • उपभोक्ता वर्ग
उत्पादक वर्ग के अंतर्गत कृषक समुदाय और श्रमजीवी थे तथा उपभोक्ता वर्ग के अंतर्गत राजा से लेकर उनका दरबान और दास तक शामिल था। इन दोनों के बीच एक बड़ा अंतर था, एक शासित था दूसरा शासक, एक शोषित था दूसरा शोषक। इनके अतिरिक्त विद्वानों का एक वर्ग था, जिनका संबंध निम्न और मध्य वर्ग से था, पर जीविका के लिए वे उच्च वर्ग से जुड़े होते थे उनमें भी उच्च वर्ग के संस्कारों और आशा आकांक्षाओं का प्राबल्य रहता था। रीतिकाव्य का संबंध निम्न वर्ग से नहीं है, क्योंकि इस काल की नायिका खेत में काम करती हुई या गोबर पाथती हुई स्त्री नहीं हो सकती थी। इस काल की कविता का मुख्य संबंध बादशाहों, राजाओं और सामंतों की काम क्षुधा की पूर्ति से था। इसलिए हम इसी वर्ग की मनोवृत्तियों पर ज्यादा ध्यान देंगे।
शाहजहाँ के काल में मुगल दरबार अपने ऐश्वर्य के लिए प्रसिद्ध था। बादशाह और उनकी बेगमों के अलावा अमीरों और कर्मचारियों का जीवन भी ऐश्वर्यपूर्ण था। प्रांतीय सामंत भी मुगल दरबार की नकल करते थे। अवध के नवाबों और जयपुर, मारवाड़ आदि के राजाओं का जीवन विलासिता में डूबा हुआ था। इस विलासिता की सबसे बड़ी विशेषता थी- खोखलापन। औरंगजेब की मृत्यु के बाद वास्तविक वैभव का स्थान वैभव प्रदर्शन ने ले लिया। इस वैभव प्रदर्शन ने विलासिता को जन्म दिया और दरबारी शिक्षा भी आशिकाना गजलों, फारस की अश्लील प्रेम कथाओं तक सीमित रह गई। रीतिकाल के कवि ‘पद्माकर’ का यह वर्णन उस काल की स्थिति परिस्थिति का परिचायक है-

गुलगुली गिल में गलीचा है गुनीजन है, चाँदनी है चिक है चिरागन की माला है। कहैं पद्माकर त्यों गजक गिजा है सजी, सेज है, सुराही है सुरा है और प्याला है। शिशर के पाला को व्यापत कसीला तिन्हैं, जिनके अधीन एते उदित मशाला है। तानतुक ताला है, विनोद के रसाला हैं, सुबाला है, दुशाला है, विशाला चित्रशाला है।

ललित क्रीड़ाओं का विलास अंतःपुर में गूंजता था चौसर और गजफ़ा के खेल मनोरंजन करते थे। तरह-तरह के कबूतर, लाल, तोता, मैना से निवास गूंजते थे। रईसों, सेठों, जमींदारों की स्थिति के ठीक विपरीत कृषकों-मजदूरों की स्थिति थी। समाज व्यवसाय एवं पेशों के अनुसार भिन्न-भिन्न वर्गों में बँट गया था

पर किसान-मजदूर का जीवन दयनीय था। अन्न उगाने वाले को अन्न की कमी थी और दरिद्रता इनको तोड़ रही थी। ज्यादातर आबादी किसानों की थी, जो दिनभर काम करने के बाद भी फटे हाल था। मुगल वैभव का पूरा खर्च इन किसानों के बल पर ही चलता था। डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में-

‘सचमुच इस समय के प्रासाद इन्हीं लोगों की हड्डियों पर खड़े थे। इन्हीं के आँसू और रक्त की बूंदे जमकर अमीरों के मोती और लालों का रूप धारण कर लेती थीं। राजा के अबाध अपव्यय की क्षति पूर्ति अनेक प्रकार के उचित अनुचित कर्मों द्वारा की जाती थी, कर्मचारीगण राजा का और अपना उदर किसानों का खून चूसकर भरते थे। सम्राट, सूबेदार, फौजदार, जमींदार आदि सभी का शिकार बेचारा किसान था।’

मजदूरों-कारीगरों को बेकारी और बेगारी ने तबाह कर दिया था। भयंकर अकाल तथा महामारी से जीवन जीना दूभर हो गया था। देश की धन-समृद्धि के नाश के साथ शिल्प, संस्कृति की हालत भी बिगड़ गई थी।

सामाजिक पतन का यह काल नैतिक मूल्यों के पतन का काल भी था। हिंदू-मुसलमान दोनों जर्जरित होकर नैतिक बल खो बैठे थे। जहाँदार शाह जैसे बादशाहों ने को मिट्टी में मिला दिया था। दरबार छल-कपट के केंद्र थे। नैतिक बल से हीन सम्राट, अमीर भाग्यवादी बन गये थे। विलास की रंगीनी में निराशा की कालिमा जीवन को घेर कर बैठ गई थी। मुगल गौरव कविता पर इसका सीधा असर पड़ा। डॉ. नगेन्द्र ने इस प्रवृत्ति का सटीक मूल्यांकन किया है।

‘भीषण राजनीतिक विषमताओं ने बाह्य जीवन के विस्तृत क्षेत्र में स्वस्थ अभिव्यक्ति और प्रगति के भी मार्ग अवरुद्ध कर दिए थे। निदान लोगों की वृत्तियाँ अंतर्मुखी होकर अस्वस्थ काम-विलास में ही अपने को व्यक्त करती थीं।’

सही मायने में साहित्यिक दृष्टि से यह युग रीतिपरक ग्रन्थों एवं श्रृंगारिक रचनाओं का है। इस काल के विलास की छाप इसके साहित्य में स्पष्ट झलकती है। रीतिकालीन रचनाएँ अलंकारिक, प्रेमप्रधान तथा दरबारी भावना से प्रेरित हैं। कवियों का उद्देश्य राजाओं का मनोरंजन-मात्र रह गया था। इस काल के साहित्य की विशेषता यह है कि इसमें कविता के भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष को अधिक प्रमुखता मिली। रीतिकाल में लक्षणग्रंथों की रचना संस्कृत काव्यशास्त्र से प्रेरित है। इस काल के कवियों में आचार्यत्व की प्रवृत्ति अधिक दृष्टिगोचर होती है। लक्षणग्रंथ ऊपर संस्कृत के दशरूपक, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक, साहित्यदर्पण आदि ग्रन्थों की छाया है।

(5) सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:

अकबर के शासन-काल में संस्कृति को उत्कर्ष मिला किंतु औरंगजेब की स्वार्थपूर्ण नीतियों ने सांस्कृतिक विकास को अवरुद्ध कर दिया। हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों की निकटता के जो प्रयास पूर्ववर्ती शासकों द्वारा किए जा रहे थे, अब टूटने लगे। अपनी सांस्कृतिक उच्चता को भुलाकर शासक एवं जनता विलासिता की विनाशलीला में तत्पर हो गई।

(6) साहित्य और कला:

साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग काफी समृद्ध रहा। ललित कलाओं में चित्रकला, स्थापत्य और संगीत-कला का पोषण राजमहलों में हुआ। संगीत-शास्त्र पर कुछ प्रामाणिक ग्रंथ लिखे गए। अलंकार-प्रिय विलासी राजा और बादशाहों की अभिरुचि से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण तथा कल्पना-परक वैविध्य की न्यूनता के कारण कलाएँ कला की सीमाओं से दूर पड़ गई। रीतिकाल में केवल श्रृंगार प्रधान कवितायें ही नहीं लिखी गईं, अपितु इसके समानांतर अन्य धाराएँ भी अपनी उन्मत्त गति से प्रवाहित होती रहीं, परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रधानता श्रृंगार रस की ही थी। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के साथ-साथ वीर काव्य भी लिखा।
भूषण ने यदि छत्रपति शिवाजी के युद्धों की प्रशंसा की तो सदन ने भरतपुर के जाट राजा सूरजमल की। ये वीर रस प्रधान कविताएँ एक बार तो मृत शव में भी जान डाल देने वाली थीं- चाहे साहित्यिक दृष्टि से, चाहे व्यावसायिक दृष्टि से। यदि देखा जाए तो यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि रीतिकालीन कवि अपने व्यक्तिगत जीवन में भक्त भी थे। श्रृंगारिक कविता के साथ-साथ इनकी भक्ति भावना भी चलती रही। कृष्ण वंदना के साथ दुर्गा जी, शिव, राम आदि देवी देवताओं को भी इन्होंने स्तुति की है। लगभग दो सौ वर्षों तक रीति प्रधान रचनाएँ होती रहीं। श्रिंगार की प्रधानता होते हुए भी मानव-जीवन की भिन्न-भिन्न वृत्तियों का निरूपण किया गया। शास्त्रीय दृष्टिकोण से उन रचनाओं में भावपक्ष एवं कलापक्ष का अपूर्व समन्वय था। हास्य और व्यंग के साथ नीति के उपदेश, श्रृंगार के साथ भक्ति भावना का प्रवाह, संगीत और काव्य कला के साथ रीति काव्यों की गहनता की त्रिवेणी के दर्शन हमें रीतिकाल में ही होते हैं। रीतिकाल काव्य के चरमोत्कर्ष एवं सर्वांगीण विकास का युग था, इसमें कोईं संदेह नहीं।

निष्कर्ष :

यह अवश्य कहा जा सकता है कि रीतिकाल में हिंदी साहित्य को एक नवीन दिशा मिली। नई-नई प्रवृत्तियों का विकास हुआ। काव्य में प्रेम एवं विलास के इंद्रधनुषी रंग बिखरे। इस काव्य ने समाज को रस समाज को रसपरक काव्य का उपहार दिया। लक्षणग्रंथों की दृष्टि से रीतिकाल का महत्व सर्वोपरि है।

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