“कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सबकर हित होई।।”
यह कह कर अपने सहित्य का आरंभ करने वाले “गोस्वामी तुलसीदास” ”कला के लिए कला” नामक सिद्धातं के समर्थक नहीं थे। वे कला को साधक मानते थे साध्य नहीं। इनके मत में वही कीर्ति, कविता और सम्पत्ति सही है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो, इसलिए उनका साध्य केवल राम-भक्ति करना ही रहा है जो धर्म की रसात्मक अनुभूति है, जो जीवन के प्रति अनुराग उत्पन्न करने वाली है, जिसमें लोक-धर्म, व्यक्ति-धर्म, शील, शक्ति तथा सौंदर्य एवं प्रवृत्ति तथा निवृत्ति का समन्वय है और उस भक्ति के आलम्बन राम एक लोकरक्षक, लोकरंजन, लोकमंगल आदि लोकधर्म सबंधी सभी वृत्तियों के चरम विकसित रुप हैं। असल में तुलसी के इष्टदेव राम थे-
“तुलसी चाहत जनम मरि रामचरन अनुराग”
यही उनके जीवन का चरम आदर्श था। राम के प्रति इनकी अटूट भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति इनके सम्पूर्ण काव्य ग्रंथो का विषय है।तुलसीदास ने राम के शक्ति, शील, सोन्दर्य और रुप की अवतारणा की है। तभी इनका सम्पूर्ण काव्य समन्वयवाद की विराट चेष्टा है। ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का राजपथ ही इन्हें अधिक रुचिकर लगा है तभी तो काव्य के उद्देश्य के सम्बंध में तुलसी का दृष्टिकोण सर्वथा सामाजिक ही रहा।
वे काव्य में उपयोगितावादी सिद्धांत के अनुयायी हैं इसलिए वे कविता की सार्थकता सुरसरि के समान सबका हित करने में गंगा जल के समान मानते हैं। इस कारण वे स्थान स्थान पर अपनी कविता को स्पष्ट शब्दों में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-प्रदायिनी, सुरुचि संपादनी, सकल सुमंगलदायिनी , सुजन मन भावनी, बुध विश्राम सकल जन रंजिनि , भव-पाश विनाशिनी, सुख सम्पत्तिदायिनी कहते हैं। उन्होंने अपनी काव्य कला में वर्ण्य या विषय को प्राथमिक महत्त्व दिया है । कला या शैली पक्ष को उसकी तुलना में गौण स्थान दिया है। वे जीवन में उदात्तता, महत्ता, भव्यता, शक्ति, शील तथा सौंदर्य की प्रेरणा देने के लिए कविता या कला का विषय बहुत ही उदात्त या महान, सुन्दरतम ,चरम शक्तिमान तथा चरम चरित्रवान मानते थे इसलिए सामाजिक एवं परिवारिक जीवन का उच्चतम आदर्श जनमानस के समक्ष रखना ही इनका काव्यादर्श था।
“रामचरितमानस” तुलसीदास का ऐसा ही सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य है। जो भाषा,भाव,उद्देश्य, कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, प्रकृति-वर्णन सभी दृष्टियों से हिंदी साहित्य का अद्वितीय ग्रंथ है। इसमें तुलसी के भक्तरुप और कविरुप का चरम उत्कर्ष है। उनकी काव्य कला का वर्ण्य राम का चरित्र है जो मानवता के परिपूर्ण विकास तथा मानव की असीम संभावनाओं का प्रतीक है। राम के चरित के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन के जिस चरमसौंदर्य, चरमशक्ति, चरमशील, परमसत्य, परमोच्व चेतना, परम आनन्द, उच्चतम वास्विकता, असम्भवनीय का दर्शन किया है उसका प्रत्यक्षीकाण कराना ही उनकी कला का प्रमुख उद्देश्य है। काव्य कला में तुलसी की सहज प्रवृत्ति “कविर्मनीषी परिभू स्वयम्भूः” तथा “काव्य: मन्त्रद्रष्टार:” के समान अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कराने की है इसीलिए उन्होंने अपनी काव्य कृतियों के माध्यम से जिस अगम रुप अनुभवैकगम्य भाव तथा अतींद्रिय वस्तु को अपनी कला के माध्यम से व्यंजित किया उसे हम नीराकार, अतींद्रिय , अगम, अगोचर, अकल, अनीह, अज आदि की संज्ञा देते हैं ।
तुलसी की काव्य-कला में रुप, वस्तु तथा भाव तीनों का समन्वय है। इनके महाकाव्य, प्रगती काव्य तथा मुक्तक काव्य के रुपों का विधान इतना कलात्मक हुआ है कि हिंदी में अब तक मानस के समान महाकाव्य, विनयपत्रिका के समान गीति काव्य तथा कवितावली एवं गीतावली के समान मुक्तक काव्य निर्मित नहीँ हो सके। मानस में काव्य कला के विविध उपादनों अक्षर, अर्थ अलंकार, रीति, गुण, वक्रोति, औचित्य, ध्वनि, भाव, छंद , भाषा आदि का जैसा औचित्यपूर्ण संश्लेषण, कथा सविधान तथा चरित्र -चित्रण के साथ हुआ है वैसा कदाचित ही विश्व के किसी काव्य में मिले।
गोस्वीमी जी घटनाओं और पृष्ठभूमि में चित्रात्मकता, भाव चित्रण में रुपकात्मकता तथा पात्रों के रुप वर्णन में आदर्श चरित्र-चित्रण से अपनी काव्य कला की रुपकात्मकता को बहुत ही रमणीय बना देते हैं। राम के वन गमन की घटना उदाहरण रुप में प्रस्तुत की जा सकती है। इसमें रुप, वस्तु तथा भाव तीनों का समावेश देखा जा सकता है :
“भुख सुखाहि लोचन स्त्रवहिं, सोक न ह्रदय समाई। मनहुँ करून रस कटकई, उत्तरी अवध बजाइ।।
अपने चरित्र- स्खलन के कारण मुनि के शापवश पाषाणवत् शरीर धारण किए अहल्या के चित्र के पूर्व उसकी पृष्ठ भूमि की एक पंक्ति में ही व्यंजनात्मक पद्धति द्वारा चित्रित की गई है :
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव ज़तु तह नाहीं ।।
पूछा मुनिहिं शिला प्रभु देखी।सकल कथा मुनि कहा विसेखी ।।
जिस व्यक्ति का चरित्र पाषाणवत् हो जाता है उसका सबसे बड़ा लक्षण यह है कि वह महास्वार्थी बन जाता है। उसका जीवन त्यागरहित दिखाई पडता है, वह प्रेम करना मानों भूल जाता है। अहल्या के साथ भी यही बात है। वह पाषाणवत् हो गई है, इसलिए वह किसी जीव-जंतु को प्यार नहीं करती। वह किसी के लिए कुछ त्याग नहीं करती I वह एकांतिक स्वार्थ के भीतर सीमित हो गई है इसीलिए खग-मृग-जीव-जंतु उसके पास नहीं जाते। राम के वन-गमन के बाद अयोद्घापुरी में शोक का सजीव चित्र भरत के ननिहाल आने के बाद दिखाई दे रहा है। कबि उस मार्मिक चित्र को नीचे की पंक्तियों द्वारा कितने कलात्मक ढंग से नरुपित कर रहा है उसे उसी के शब्दों में देखिए :
लागति अवध भयावनि भारी। मानहु काल राति अँधियस्टी।।
घर मसान परिजन् जनु भूता I सुत हित मीत मनहुँ जमदूता।
बागन बिटप बेलि कुमिलाहीँ। सरित सरोवर देखि न जाहीं।।
राम वियोग विकल सब ठाढ़े I जेह तहँ मनो चित्र लिखि काढ़ेे।।
तुलसीदम्स जो ने अपने महाकाव्य, गीति काव्य तथा मुक्तक काव्य में मानव जीवन की नाना परिस्थितियों, प्रकृति के बाह्य दृश्यों। मानव जीवन की नाना वस्तुओं को इस रमणीय तथा सूक्ष्म निरीक्षण के साथ अंकित किया है कि श्रोता या पाठक का अत:करण उसका पूरा बिम्ब ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। चित्रकूट का बिम्बात्मक वर्णन उदाहरण स्वरुप देखिए :
फटिक-सिला मृदु विसाल, संकुल सुरतरु तमाल, ललित लता जाल हरित छवि वितान की।
मदाकिनी-तटनि-तीर, मंजुल-मृग विहग भीर. धीर मुनि गिरा गम्भीर साम गान की ।।
मधुकर पिक बरहिं मुखर, सुंदर गिर निरझर-झर, जल-कन, द्दन द्दाँह , द्दन प्रभा न भान की।
सब ऋतु ऋतुपति प्रभाउ, सन्तत बहै त्रिबिध बाउ, जनु बिहार वाटिका नृप पंचबान की ।।
तुलसीदास जी के मानस में मानव जीवन की जितनी अधिक परिस्थितीयों तथा मानव भावों का जो रमणियात्मक और सजीव वर्णन किया है कदाचित् वैसा अन्यत्र किसी कवि में नहीं मिलता। तुलसी ने अपने महाकाव्य के भीतर मानव जीवन की प्राय: सभी परिस्थितियों में अपने को डालकर उनका सजीव अनुभव कर उनका बिम्बात्मक चित्र उपस्थित कर अपनी सर्वांगपूर्ण भावुकता का परिचय दिया है। मानवता के विकास के लिए जिन मूलतत्वों को जीवन का मंथन करके नवनीत रुप में तुलसीदास ने निकाला है वे हैं सत्य और प्रेम ।
उनकी काव्यकला की दूसरी सबसे बडी विशेषता उसकी व्यापकता, गम्भीरता तथा मार्मिकता है। उनकी काव्य कला की व्याप्ति इतनी विस्तृत है कि वह सामाजिक जीवन के सभी पक्षों-वर्ण, आश्रम, जाति, धार्मिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का ज्ञान, कर्म, उपासना, निवृत्ति की समस्या, स्वर्ग-नर्क की कल्पना,पुनर्जन्म, मोक्ष आदि की धारणा, अध्यात्मिक जीवन के विभिन्न तत्वों ब्रहम, जीव, माया, प्रकृति, पुरुष चतुर्वर्ग की कल्पना, अवतारवाद, निर्गुण-सगुण का स्वरुप, पारिवारिक जीवन के विभिन्न सम्बन्ध जैसे माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्मी, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, सास-पुत्र-वघू आदि का चित्रण, सांस्कृतिक जीवन के विभित्र पक्षों ऱीति रिवाज, उत्सव पर्व, तीर्थ आश्रम, सभा दरबार, जातीय विश्वास, जातीय मूल्यों आदि का चित्रण, राजनीतिक जीवन के विभिन्न तत्वों राजा-प्रजा का संबंध, उनके पारस्पारिक कर्तव्य, सुराज तथा स्वराज्य आदर्श, आदर्श राजा, तत्कालीन नाना समस्याओँ के निरुपण के साथ-साथ कविता के नाना तत्वों अलंकार, रीति, गुण, वक्रोक्ति, औचित्य, ध्वनि, रस सब को समानुपातिक रुप में अपने भीतर समाविष्ट किए हुए हैं। मानस महाकाव्य के किसी भी तत्व में अतिरेकता नहीं है। इसमें काव्य के सभी गुण तथा तत्व संतुलित रुप में रखे गए हैं। वस्तु का विन्यास महाकाव्य में लोक प्रकृति के अनुकूल किया गया है, पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके वंश तथा स्वभाव के अनुसार किया गया है। श्रंगार का मर्यादित रुप वही कवि प्रस्तुत कर सकता है जिसकी रुचि बडी परिष्कृत तथा उदान्त हो।
तुलसीदास जी सर्वत्र श्रृंगार को मर्यादित रुप देने में सफल दिखाई देते हैं। उनके राम पुष्प वाटिका में सीता के कंगन, किंकिणि तथा नूपुरों की ध्वनि सुनकर अपने ह्रदय में सीता के प्रति उत्पन्न हुए प्रेम को लक्ष्मण से कहते हैं। कुछ क्षण के लिए उनका मन काम भावना से पराभूत हो जाता है किन्तु तुरंत ही वे अपने कुल की मर्यादा का स्मरण कर अपनी श्रृंगारिक भावना को मर्यादित कर लेते हैं ।
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हदय गुनि।
मानहु मदन दुंदुभी दीन्हीं। मनसा विस्व विजय कहँ कीन्ही।।
अस कहि फिर चितए तेहि ओरा। सिय भुख ससि भए नयन चकोरा।।
भयउ विलोचन चारु अंचचल। मनहु सकुचि निमि तजे दृगंचल।।
रघुवंसिन का सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पग धरहिं न काऊ।।
मोहिं अतिसय प्रतीति मन करी। जेहिं सपने हुँ परनारि न हेरी।।
मानस में निरुपित उदात्त जीवन-मूल्य शील के विकास द्वारा नर से नारायण बनने की चरितार्थता में है। सीता का जीवन नारी के रुप में तप, त्याग, प्रेम सयम तथा सत्य को अपनाकर सृष्टि के उदभव, स्थिति, संहारकारिणी, सर्वश्रेयकारी के रुप में परिणत हो जाता है। राम के आचरण में मानवता के सभी उदात्त मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है। मानस महाकाव्य का लक्ष्य अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थो की प्राप्ति कराना माना गया है। तुलसीदास जी काव्य-कला के क्षेत्र में वस्तुवादी हैं। किंतु वस्तुवादी होते हुए भी उनकी काव्य-कला के प्रत्येक तत्व में उनका व्यक्तित्व झाँकता हुआ दिखाई पडता है। चाहे जिस स्थल को लीजिए, जिस तत्व को लीजिए, जिस पात्र को लीजिए सभी में तुलसी की निजी धारणा, निजी सिद्धांत तथा मौलिकता की छाप है। तुलसी की कथावस्तु तथा बिषय-तत्व, नाना पुराणों , आगमों, निगमों तथा संस्कृत काव्य ग्रन्धों से लिया गया है। पर इन सामाग्रियों को लेकर उन्होने अपने महाकाव्य, गीतिकाव्य तथा मुक्तक काव्यों को जो सर्वथा नवीन रुप प्रदान किया है वह सब प्रकार से प्रशंसनीय है।
मानस में गोस्वामी जी ने पुराण, नाटक और महाकाव्य तीनों की शैली और विशेषताओँ का समन्वय कर दिया है। कहीं पर उनकी शैली पौराणिक कहीं पर नाटकीय और कहीँ पर महाकाव्यात्मक औदात्य लिए हुए हैं। इसका आरंभ पुराण के समान है तद्दनंतर पुष्प-वाटिका तथा धनुष यज्ञ का प्रसंग नाटकीय है और कहीं कहीं पर चार-चार कथा सम्वादों का एक साथ संगठन हुआ है। रामचरितमानस में प्रतिष्ठित राम तथा सीता का स्वरुप तुलसी की प्रतिभा का संस्पर्श पाकर अद्वितीय तथा अनुपम आभा से मंडित हो गया है। यद्यपि तुलसी ने अपने नायक-नायिका के चरित्र के विभिन्न तत्वों को अपने पूर्ववर्ती अनेक स्त्रोत ग्रंथों से लिया हैं पर इन तत्वों को अपने निजी दर्शन तथा निजी सामाजिक सिद्धांतो में ढालकर राम को पूर्ण पुरुष काही नहीं, पूर्ण ब्रहम का भी रुप प्रदान किया तथा सीता को उद्दभवस्थिति संहारकारिणी तथा सर्वश्रेयस्करी शक्ति के रुप में रखा। तुलसीदास की भक्ति का स्वरुप भी लोकमंगल से समाविष्ट हैं। दू्सरे वे भक्ति को एक रस के रुप में देखते हैं। इसके पहले के दार्शनिकों ने भक्ति को साधना की वैयक्तिक भूमिका पर ही प्रतिष्ठित किया था तथा इसका समावेश शांतरस के भीतर करके इसका स्थायी भाव वैराग्य माना था, किंतु तुलसीदास जी ने भक्ति को स्वतंत्र्य रस मानकर उसे धर्म की रसात्मक अनुभूति घोषित कर उसे लोकमंगल की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया तथा उसका स्थायी भाव लोक प्रेम ही माना है।
तुलसी का मर्यादावाद केवल समाज की पुरानी रीतियों, रुढियोें, परम्पराओं पर ही अवलंबित नहीं है, वरन् वह प्रेम, त्याग तथा सामाजिक विकास व्यवस्था पर प्रतिष्ठित है। उनके मर्यादावाद में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण नहीं है। वे व्यक्ति के आचरण की इतनी ही मर्यादा चाहते हैं, जितने से वह दूसरों के जीवन मार्ग में बाधक न हो सके तथा पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों की रक्षा तथा निर्वाह के अनुकूल मन, वचन एवं कर्म की व्यवस्था कर सके। इस प्रकार तुलसी के मर्यादावाद में समाज तथा व्यक्ति दोनों के विकास का समन्वय है और यह तुलसी के मर्यादावाद की मौलिकता है। तुलसी का स्पष्ट संकेत है कि काव्य-कला की शोभा तथा सार्थकता सह्रदय पाठक के ह्रदय में शोभा की वस्तु बनने में है अर्थात् कविता इतनी प्रभावशाली हो कि वह प्रबुद्ध सह्रदयों तथा सज्जनों के ह्रदय में शोभा, अनुराग तथा सम्मान की वस्तु बन जाने की क्षमता रखती हो जैसे:
तैसहिं सुकवि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहरीं।।
निष्कर्ष:
निष्कर्ष रूप से तुलसी की काव्य-कला की प्रभावोत्पादकता का विश्लेषण करें तो हमें उसके कई कारण तथा आधार दिखलाई पडते हैं। तुलसी की काव्य कला की प्रभावोत्पादकता का कारण उनकी अनुभूति की सच्चाई है, जो काव्य-कला तथा जीवन की सच्ची साधना भी है । उन्होंने अनन्यं निष्ठा से रामचरित का दर्शन करके अनुभव करके उसे काव्य-कला के माध्यम से व्यक्त किया है इसलिए तो यहां तुलसी की काव्य-कला की साधना व्यक्ति जीवन से विश्व जीवन की ओर ले जाने वाली एक महायात्रा है।