बिहारी की श्रृंगार भावना पर प्रकाश डालिए?

बिहारी की श्रृंगार भावना पर प्रकाश डालिए ? | Hindi Stack
बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक प्रसिद्ध एंव लोकप्रिय कवि है। रीतिकालीन कवियों का काव्य तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल था।अपने आश्रयदाताओं की सोच को इन्होंने अपने काव्य में ढालकर प्रस्तुत किया है। रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त प्राय: सभी काव्यधाराओं में श्रृंगार की ही प्रमुखता रही है किंतु तत्कालीन कवियों के काव्य में लोक संस्कृति की झलक भी रह रहकर दिखाई पड़ती है। इसके अतिरिक्त भक्ति ,नीति, वीर एंव हास्यपरक विषयों को भी अपने काव्य में वर्णित किया है। रीतिकाल के रीतिसिद्ध कवियों मे से बिहारी इस युग के सर्वश्रेष्ठ कवियों में गिने जाते है। रीतिसिद्ध कवियों की परंपरा में उन कवियो़ को गिना जाता है जिन्होंने रीतिग्रंथों की परंपरा का अनुसरण करते हुए लक्षण ग्रंथों की रचना की।इस युग के कवियों भूषण, बिहारी, सेनापति, आदि आते है।
बिहारी सतसई श्रृंगार प्रधान रचना है। श्रृंगारिक होते हुए में इसमें भक्ति नीति और दर्शन का रूप देखने को मिल जाता है। परंतु इस ग्रंथ में प्रधानता केवल श्रृंगार रस की ही है। बिहारी ने श्रृगांर रस के दोनों पक्षों संयोग एंव वियोग पक्ष का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।श्रृंगार रस और भक्ति रस के साथ उन्होंने भाव व्यंजना की अभिव्यक्ति भी की है।जिसमें उन्होंने हाव वर्णन और अनुभाव वर्णन को प्रमुखता प्रधान कर उसके सहज रूप में वर्णन प्रस्तुत किया है।जिससे स्पष्ट होता है बिहारी हाव-विधान और अनुभाव व्यंजना के धनी कवि थे। बिहारीलाल रीतिकाल के सर्वाधिक अभिव्यक्ति सक्षम कवि माने जाते हैं। इसलिए उनके संबंध में कहा गया है कि उन्होंने गागर में सागर भरा है। बिहारीलाल ने अपनी सतसई के छोटे से दोहे छन्द में जिस ढंग से विशिष्ट और गंभीर प्रसंगों को पिरोकर उनमें तदनुरूप भावों का भरने की कोशिश की है, वह पूरे रीतिकाल में बेजोड़ है। इससे बिहारी की भाव-व्यंजना और भाषा-सामर्थ्य का पता चलता है। उनकी इसी विशेज्ञता को लक्ष्य करके कहा गया है-

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगैं, घाव करै गभीर।।”


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बिहारी की कृति का प्रमुख आधार उनकी बाहरी सतसई है। यही ग्रंथ उनकी ख्याति का प्रमुख आधार है।उन्होंने हिंदी साहित्य में श्रृंगार रसपूर्ण मुक्तकों की रचना करके सतसई परंपरा का प्रवर्तन किया इसलिए श्रृंगार इनके काव्य का मूल विषय रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते है:-

“श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति जितना मान बिहारी सतसई को प्राप्त हुआ उतना और किसी को कोई।इसी एक ग्रंथ के आधार पर बिहारी अद्वितीय कवि सिद्ध हुए।”

बिहारी ने अनुभूति पक्ष के अंतर्गत सौंदर्य विधान को महत्व दिया है।सौंदर्य विधान में उन्होंने नारी सौंदर्य और प्रकृति सौंदर्य को प्रमुखता प्रदान की है नारी सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते है:-

“छाले पारिबै कै डरनु सखि न हाथ छुवाई। झझकत हिये गुलाब के झपैयत झंवा पाई।”

बिहारी ने बिहारी सतसई में नारी के जो चित्र खींचे है।उनमें नारी के बाह्य सौदर्य का चित्रण ही नहीं किया अपितु नारी के मन के सौंदर्य का भी वर्णन किया है। बिहारी ने अपने श्रृंगार रस से संबंधित दोहों मे मौलिकता दर्शायी है श्रृंगार रस के दोनों ही पक्षों को बड़ी सफलता के साथ चित्रित किया है।एक.साधारण नायक नायिका के प्रेममिलाप.का वर्णन करते हुए कहते है:-

“कहत नटत रीझत खीझत मिलत हसत लजियात भरे भौन में करत है नैननु ही सौं बात।।”

बिहारी की नायिका नेत्रों के माध्यम से ही हद्वय के समस्त गोपनीय भावों को नायक तक पहुँचाती है।वे प्रेम के सौंदर्य का प्राण मानते है उन्होंने सतसई में नायक-नायिका की प्रेमानुभूति को अत्यंत मर्मस्पर्शीय एंव सजीवता के साथ अभिव्यक्त किया है।प्रस्तुत दोहें मे नायक नायिका के ध्यान में मग्न होकर खुद को ही नायक (प्रियतम) समझने लगती है:-

“पिय कै ध्यान गही गही रही वही है नारि आपु आपु हीं आरसी लखि रीझति रिझ वारी।”

अर्थात् प्रेम मे प्रिय का सामना करते ही नायिका सारी सुध बुध खो बैठती है। नायिका की सुकुमारता,उसके अद्भुत लावण्य के वर्णन में वस्तुव्यंजना का सहारा लेकर दोहों में सहसा श्रोता को चमकृत करने की शक्ति का समावेश बिहारी ने अपनी सतसई में किया है:

“सौनजुड़ी सी जगमगति अँग अँग जीवन-जोति सुरँग कसूँभी कँचुकी दुरँग देह दुति होति ।।”

संयोग वर्णन के साथ ही बिहारी ने वियोग श्रृंगार को भी सहज एंव स्वाभाविक चित्रण किया है।यद्यपि यह बात अलग है कि उनका मन वियोग श्रृंगार की अपेक्षा संयोग मे अधिक रमा है।इसलिए उनका विरह वर्णन कहीं कहीं औचित्य की सीमा को पार कर गया है। उदाहरणार्थ:

“इति आवति चलि जात उत,चली छ: सातक हाथ चढ़ि हिंडोरे सी रहै , लगी उसासन हाथ।।”

बिहारी ने श्रृंगार के केंद्रीय तत्व प्रेम पर गंभीरता से विचार किया है।बिहारी के लिए प्रेम एक दिव्य सात्विक भाव है।जो रजोगुणी एंव तमोगुणी भावों के स्पर्श मात्र से दूषित हो जाता है।बिहारी के शब्दों में:-

“जो चाहो चटक न घटै, मैला होय न भीत रजराजस न छुआइए नेह चीकने चित।।”

बिहारी ने श्रृंगार के संयोग और वियोग स्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है।परंतु उनका मन संयोग मे जितना रमा है उतना विप्रलंभ मे नहीं।पूरी रीति परंपरा मे संयोग श्रृगांर के प्रति विशेष आकर्षण दिखाई देता है।संयोग श्रृंगार मे शारीरीक आकर्षण की प्रधानता रहती है। नायक नायिका के विलग हो जाने से वियोग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।वियोग दशा में सच्चा प्रेम शिथिल न होकर विरहिणी मे तपकर कंचन से कूदंन बन जाता है। बिहारी सतसई श्रृंगार प्रधान रचना है।श्रृंगारिक होते हुए भी इसमें भाक्ति नीति और दर्शन का रूप देखने को मिलता है।परंतु इस ग्रंथ में प्रधानता केवल श्रृंगार रस की ही है।श्रृंगार रस में उन्होंने भक्ति रस के साथ उन्होंने भाव व्यंजना की अभिव्यक्ति भी की है,जिसमें उन्होंने हाव भाव का वर्णन अनुभाव वर्णन को प्रमुखता प्रधान कर उसको सहज रुप से वर्णित किया है।जिससे स्पष्ट होता है बिहारी हाव-विधान और अनुभाव व्यंजना के धनी कवि है।
प्रकृति चित्रण के अंतर्गत बिहारी ने छ: ऋतुओं ,बंसत ,ग्रीष्म , वर्षा , शारद ,हेमन्त और शिशिर का वर्णन किया है।इन छ: ऋतुओं के साथ साथ बिहारी ने प्रकृति का उद्दीपन, आलम्बन,और आलंकारिक रूप से वर्णन प्रस्तुत किया है।बिहारी के प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण संयोग एंव वियोग दोनों पक्षों ने किया है। संयोगानुभूतियों के उद्दीपन के रूप चित्रण ने प्रकृति का सुन्दर वेश उसकी अनुभूतियों की ओर अधिक आकर्षण बनाता है।जो इस प्रकार है:

” घाम घरीकै निवारियै, कलित ललित अतिपूंज जमुना तीर तमाल तरू मिलित, मालती, कुंज।”

अत: कहा जा सकता है कि बिहारी श्रृंगारिक कवि के साथ साथ बहुज्ञाता भी थे।बिहारी अपने युग के सर्वाधिक कलात्मक सौंदर्य के कवि है जितना उनका भाव पक्ष सबल एंव समर्थ है कला पक्ष भी उतना ही रूचिकर एंव आनंदवर्धक है।बिहारी की भाषा शुद्ध ब्रजभाषा है उन्होंने भाषा को सिद्ध रूप मे सारगर्भित बनाकर प्रस्तुत किया है।

निष्कर्ष :

बिहारी की सतसई में श्रृंगार ,भक्ति, नीति का काव्यनुभूति प्रकृति चित्रण की व्यापकता, विभिन्न ज्ञान के विषयों को सरलतापूर्वक काव्य के योग्य बनाकर प्रभावी ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है। बिहारी के काव्य की विशेषताओं के भाव व कला पक्ष दोनों सबल दिखाई देता है।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. हिन्दी काव्य में श्रृंगार परम्परा – डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त, संस्कंरण-1997
  2. बिहारी सतसई का तुलनात्मक अध्ययन – उर्मिला पाटील, विद्या प्रकाशन, संस्कंरण-1992

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