‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का प्रथम उत्कृष्ट महाकाव्य माना गया है। यह एक ढाई हजार पृष्ठों का वृहद् आकार का ग्रंथ है , किन्तु इसकी प्रामाणिकता के संदर्भ में विद्वानों में विवाद है। वस्तुतः यह ग्रंथ प्रारंभ में अप्रामाणिक नहीं था। कर्नल टाड ने इसकी वर्णन-शैली तथा काव्य-सौंदर्य पर मुग्ध होकर इसके लगभग 30 हज़ार छन्दों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। सन 1875 ई में डॉवूलर ने ‘पृथ्वीराज विजय’ ग्रंथ के मिलने पर ‘पृथ्वीराज रासो’ को अप्रामाणिक घोषित कर दिया। इस विवाद में विद्वानों के चार वर्ग हो गये।
एक वर्ग उन विद्वानों का है जो इसे प्रामाणिक मानते हैं तथा दूसरा वर्ग इसे अप्रामाणिक मानने वालों का है। तीसरे वर्ग के विद्वान इसे चंद की रचना नहीं मानते तथा दूसरा चौथे वर्ग के विद्वानों ने चंद को तो प्रामाणिक माना है किंतु पृथ्वीराज रासो को अप्रामाणिक घोषित किया है। इनके मतों का अध्ययन हम अग्र प्रकार कर सकते हैं –
(1) कतिपय विद्वान को प्रमाणिक ग्रंथ मानकर उसका पूर्ण समर्थन करते हैं। चंद कवि को भी पृथ्वीराज का समकालीन सिद्ध किया है। मिश्रबंधु, मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, डॉक्टर श्यामसुंदर दास आदि विद्वान इसी वर्ग में आते हैं।
(2) कुछ विद्वान इसे पूर्ण अप्रामाणिक मानते हुए ऐतिहासिक दृष्टि से इसका निषेध करते है। इनका कथन है कि ना तो चंद नाम का कोई कवी हुआ ना ही उसने ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य की रचना की । इन विद्वानों में गौरीशंकर हीरानंद ओझा, डॉ वूलर, मुंशी देवी प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि प्रमुख हैं। जिनके तर्क इस प्रकार हैं –
- रासो में उल्लेखित घटनाएं व नाम इतिहास से मेल नहीं खाते।
- पृथ्वीराज का दिल्ली जाना, संयोगिता स्वयंवर की घटनाएं भी कल्पित हैं।
- अनंगपाल, पृथ्वीराज व बीसलदेव के राज्यों के वर्णन अशुद्ध व निराधार हैं।
- पृथ्वीराज द्वारा गुजरात के राजा भीमसिंह का वध भी इतिहास सम्मत नहीं है।
- पृथ्वीराज की माता का नाम कर्पूरी था, जो इसमें कमला बताया गया है।
- पृथ्वीराज के चौदह विवाह का वर्णन भी अनैतिहासिक है।
- पृथ्वीराज द्वारा सोमेश्वर एवं गोरी का वध भी कल्पित एवं इतिहास विरूद्ध है।
- रासो में दी गई तिथियां भी अशुद्ध हैं।
(3) कुछ विद्वान ये मानते हैं कि चंद नाम के कवि आवश्यक है। किन्तु उनके द्वारा रचित वास्तविक रासो उपलब्ध नहीं है। इन विद्वानों ने ‘रासो’ का अधिकांश भाग माना है।
(4) इस वर्ग के विद्वान मानते हैं कि चंद ने जेटली राज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में रासो की रचना की थी। इनके मतानुसार ‘रासो’ प्रबंधकाव्य नहीं था। यह नरोत्तमदास स्वामी का है।
इसी प्रकार पृथ्वीराज रासो को किसी अंश तक प्रामाणिक मानने वाले विद्वानों के तर्कों पर विचार किया जा सकता है –
- डॉ. दशरथ शर्मा का मत है कि इस ग्रंथ का मूल रूप प्रक्षेपों में छिपा है तथा जो शुद्ध प्रति है उसमें इतिहास संबंधी कोई अशुद्धि नहीं है।
- डॉ. हजारी प्रसाद दिवेदी ने ‘पृथ्वीराज रासो’ में बारहवीं शताब्दी की भाषा की संयुक्ताक्षरमयी अनुस्वारान्त प्रवृत्ति देख कर इसे बाहरवीं शताब्दी में रचित ग्रंथ स्वीकार किया है।
- कतिपय विद्वानों का ये भी विचार है कि ‘रासो’ इतिहास ग्रंथ न होकर काव्य – रचना है, अतः ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव में इसे नितान्त अप्रामाणिक घोषित नहीं किया जा सकता।
- घटनाओं में 90 – 100 वर्षों का अंतर संवत की भिन्नता के कारण ही हुआ है। विष्णुलाल पांड्या द्वारा कल्पित ‘आनंद संवत’ के अनुसार इस ग्रंथ की ऐतिहासिक तिथियां भी शुद्ध सिद्धि होती हैं।
- डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘पृथ्वीराज रासो’ शुक – शुकी संवाद के रूप में रचा गया था, अतः उन अंशों को ही प्रक्षिप्त माना जा सकता है जिनमें है शैली नहीं पाई जाती।
- ‘रासो’ मैं अरबी – फारसी के शब्दों का पाया जाना इसको अप्रामाणिक सिद्ध नहीं करता। वस्तुतः चंद लाहौर का निवासी था। उस समय लाहौर मुसलमानों के प्रभाव में था आतः उनकी भाषा में इस प्रकार के शब्दों का आना स्वाभाविक ही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसको सर्वथा अप्रामाणिक एवं इतिहास विरुद्ध माना था, किंतु डॉ श्यामसुंदर दास इतिहास संबंधी भ्रांतियों का निराकरण करते हुए कहते हैं –
- चंद कवि द्वारा अपने आश्रयदाता राजा पृथ्वीराज की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करना उचित है।
- इस ग्रंथ के क्षेपक भी इसे अप्रामाणिक सिद्ध नहीं करते। अति प्रसिद्ध ग्रंथों में प्रक्षिप्त अंशों का पाया जाना स्वाभाविक है, अन्यथा हमें ‘रामचरितमानस’ आदि महान ग्रंथ अप्रामाणिक माना होगा।
मिश्रबंधुओं के अनुसार काव्य केवल इतिहास ही नहीं होता की यह ग्रंथ काव्य – ग्रंथ जिसमें कल्पनाओं का समावेश होना स्वाभाविक ही है।
निष्कर्ष:-
इस प्रकार रासो की प्रामाणिकता के विषय में अनेक मत एवं अनेक धारणाएँ हैं। अचार्य रामचंद्र ने इसे सर्वथा अप्रामाणिक घोषित किया है, परंतु डॉ शिवकुमार शर्मा किए अनुसार रासो सर्वथा अप्रामाणिक नहीं है। उनका मत है कि रासो का लघुतम संस्करण मौलिकता के बहुत निकट हैं ऐतिहासिकता में कल्पना का समन्वय कर अपने कथ्य को रोचकता प्रदान करते हैं कहीं जाहिर नायक की गरिमा में वृद्धि करने की लालसा भी उन्हें ऐतिहासिक साक्ष्यों को बदलने के लिए प्रेरित करती हैं हिन्दी का है जिसकी प्रामाणिकता एवं अप्रामाणिकता के विषय मे इतना अधिक कहा गया है । साधारण पाठक के लिए यह निर्णय करना कठिन है की इसे प्रामाणिक समझें या नहीं । डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है –
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता सिद्ध करना दुष्कर कार्य है। इसके विरोध में पर्याप्त प्रमाण दिए गए हैं तथा ‘पृथ्वीराज विजय’ निश्चय ही इतिहास- सम्मत एवं वास्तविकता के निकट है। तब भी प्रक्षिप्तांशों से रहित मौलिक स्वरूप पर विचार करें तो ‘पृथ्वीराज रासो’ को अवास्तविक ठहराने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः ‘पृथ्वीराज रासो’ आदिकाल की महान रचना है।