‘गीतिकाव्य’ आदिकाल की एक विशिष्ट और अत्यंत लोकप्रिय रचना है, जो मानव हृदय के अत्यंत निकट होने के कारण समय-समय पर साहित्यिक परंपरा में उच्च स्थान पाती रही है। गीतिकाव्य का प्रमुख उद्देश्य कवि की आत्मा और उसकी अनुभूतियों का सहज, लयबद्ध और संगीतमय अभिव्यक्तिकरण होता है। विद्यापति, जिन्हें हिन्दी गीतिकाव्य का पथप्रदर्शक माना जाता है, ने इस विधा को अपनी रचनाओं के माध्यम से एक नवीन ऊँचाई प्रदान की। उन्होंने प्रेम, विरह, भक्ति और सौंदर्य जैसे भावों को अपने गीतों में समाहित किया और उनकी गेयता ने उन्हें लोक में अमर बना दिया।
गीतिकाव्य की परिभाषा और इसके प्रमुख तत्वों पर आधारित विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन करना आवश्यक है, ताकि उनके काव्य की उत्कृष्टता और उसकी साहित्यिक महत्ता को समझा जा सके। गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों में भावात्मकता, वैयक्तिकता, संगीतात्मकता, शैली की कोमलता और मधुरता, संक्षिप्तता और मुक्तक शैली का समावेश होता है। विद्यापति के गीतों में इन तत्वों का अद्भुत सम्मिलन मिलता है, जिससे उनके गीतिकाव्य को विशेष पहचान मिली।
गीतिकाव्य के प्रमुख तत्व
गीतिकाव्य की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाओं के आधार पर इसके छह प्रमुख तत्व निर्धारित किए गए हैं:
- भावात्मकता
- स्वानुभूति का प्रकाशन या वैयक्तिकता
- संगीतात्मकता
- शैली की कोमलता और मधुरता
- संक्षिप्तता
- मुक्तक शैली
इन सभी तत्वों का मूल्यांकन विद्यापति के गीतों के संदर्भ में करने से उनके काव्य की सृजनात्मकता, कलात्मकता और उनकी शैली की गहराई को समझा जा सकता है।
1. विद्यापति के गीतों में भावात्मकता
भावात्मकता गीतिकाव्य का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह काव्य की आत्मा होती है, जो पाठक या श्रोता के हृदय को सीधे स्पर्श करती है। गीतिकाव्य की सफलता का आधार उसकी भावनात्मकता है, जो पाठक या श्रोता को उस अनुभव के साथ जोड़ देती है, जिसे कवि ने स्वयं महसूस किया है।
विद्यापति के गीतों में भावात्मकता अपने चरम पर है। उदाहरण के लिए, जब नायक राधा को अकेला छोड़कर मथुरा चला जाता है, तो राधा का दुःख और विरह की पीड़ा गीत में सहजता से अभिव्यक्त होती है:
“कलि कहल पिया ए सांझहि रे, जाएब मोयँ मारू देस।
मोय अमागलि नहि जानलि रे, संग जइतओं जोमिन वेस।
हृदय मोर बड़ दारून रे, ह्विया बिनु बिहरि न जाए।
एक सयन सखि सूतल रे, आछल बालम निस मोर।
न जानल कति खन तेजि गेल रे, बिछुरल चकेवा जोर।”
इस गीत में राधा की पीड़ा इतनी गहन और स्पष्ट है कि पाठक या श्रोता उसकी अनुभूति से एकाकार हो जाता है। भावात्मकता के कारण ही विद्यापति के गीत आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं। डॉ. चार्ल्स मिल्स ने लिखा है कि
“वस्तुतः गीतिकाव्य को ही कविता कहा जा सकता है। किसी कृति-विशेष में काव्यात्मकता जितनी अधिक होती है, वह उसी अनुपात में गीतात्मक है। नाटक जितना ही काव्यात्मक होगा, वह उतना ही गीति तत्व से पूर्ण होगा। महाकाव्य जितना ही अधिक काव्यात्मक हो, उतना ही गीतात्मक होता है।’
स्पष्ट है कि गीतिकाव्य का एक अत्यन्त आवश्यक धर्म उसका भाव प्रधान होना है।
2. विद्यापति के गीतों में वैयक्तिकता या स्वानुभूति का प्रकाशन
गीतिकाव्य का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व वैयक्तिकता है, जो कवि की स्वानुभूतियों और व्यक्तिगत भावनाओं को काव्य के माध्यम से व्यक्त करता है। यह गीतिकाव्य को व्यक्तिगत और आत्मपरक बनाता है, क्योंकि इसमें कवि की निजी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ और मनोभाव प्रत्यक्ष होते हैं।
विद्यापति के गीतों में यह स्वानुभूति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यद्यपि उनके गीतों में राधा-कृष्ण की कथा है, फिर भी उनकी शैली इतनी व्यक्तिगत है कि पाठक को ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे अपनी ही अनुभूतियों को व्यक्त कर रहे हैं। उदाहरण के लिए:
“कतन वेदन मोहि देहि मदना।
कहहि मो सखि कहहि मो तक तकर अधिवास।
की मोरा जीवन की मोरा जीवन कि मोरा चतुरपने।”
यहाँ कवि ने नायक-नायिका के अनुभवों को अपने अनुभवों के समान प्रस्तुत किया है, जिससे गीतों में वैयक्तिकता का गुण और प्रखर हो जाता है।
3. विद्यापति के गीतों में संगीतात्मकता
गीतिकाव्य की सबसे प्रमुख विशेषता उसकी संगीतात्मकता है। गीतिकाव्य का प्रमुख उद्देश्य भावों को लयबद्ध और संगीतात्मक रूप में प्रस्तुत करना है। विद्यापति के गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उनमें संगीतात्मकता का पूर्ण समावेश हुआ है।
विद्यापति स्वयं संगीतज्ञ थे और उनके गीतों में विभिन्न रागों का प्रयोग होता है, जैसे मालव, आसावरी, केदार, कानड़ा आदि। विद्यापति के कई गीत इतने लोकस्वीकृत हैं कि वे लोकगीतों की तरह गाए जाते हैं। उदाहरण के लिए:
“बाजत द्रिगि द्रिगि धैद्रिय द्रिमिया नटति कलावति माति स्याम संग कर करताल प्रबन्धक ध्वनिया। डम डम डंफ डिमिक डिम मादल रून झुन मंजीर बोल।”
इस गीत में शब्दों के साथ वाद्य स्वरों का भी समावेश किया गया है, जिससे गीत की संगीतमयता और बढ़ जाती है। विद्यापति के गीतों की यह संगीतात्मकता उन्हें गेय और लोकप्रिय बनाती है। इस गीत के संबंध में डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है –
“शब्द निर्व्याज सहज है। अलंकरण का कहीं नाम नहीं पूरे, पद में एक खास प्रकार का उल्लास भरा आग्रह, लय की बार-बार टूटती, उठती मनुहार और इन सबके ऊपर जैसे सहज शब्दों के प्रयोग, जो इस गीत को प्राणवान बनाते हैं। एक बात और ध्यान देने की है। कवि ने बड़ी योग्यता से ऐसे गीतों में भाव की एकसूत्रता की भी रक्षा की है। वैसे उस गीत की सहजता के भीतर अर्थ की कमी नहीं है, संकेत प्रचुर है – सब कुछ ऊपर से कहा जा रहा है, सखी का निर्जन में होना, बिजली की भयकारी स्थिति, जिसे उन्होंने बिजली की तुलाइत, तुलित होना कहा है तथा रात की अँधियारी – गोपी के प्रेम के उच्छवास के संकेत हैं, आवर्जन के नहीं।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विद्यापति के गीतों में संगीतात्मकता का पूर्ण समावेश हुआ है।
4. विद्यापति के गीतों में शैली की कोमलता और मधुरता
विद्यापति के गीतों की शैली अत्यंत कोमल और मधुर है। उनकी कविताओं में शब्दों का चयन और उनके संयोजन की शैली इतनी सुंदर और लचीली है कि वह सीधे हृदय में उतर जाती है। उनकी शैली की कोमलता उनके भावों की अभिव्यक्ति को और भी प्रभावशाली बनाती है। एक उदाहरण:
“सुतलि छलहुँ हम घरवारे गरवा मोतिहार राति जखनि भिनुसरवारे पिया आयल हमार।”
यहाँ विरहिणी नायिका अपने प्रिय के स्वप्न में आने की मधुर अनुभूति को व्यक्त करती है, और शब्दों की कोमलता से भाव की गहराई और बढ़ जाती है।
5. विद्यापति के गीतों में संक्षिप्तता
गीतिकाव्य का एक और महत्वपूर्ण गुण संक्षिप्तता है। विद्यापति के गीतों में यह गुण बखूबी देखने को मिलता है। वे अपने गीतों में कम शब्दों में अधिक कहने की कला में निपुण थे। उनके गीत संक्षिप्त होते हुए भी अपने भावों को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए:
“सहजहि आनन सुन्दर रे, भौंह सुरेखलि आँखि। पंकज मधु पिवि मधुकर रे, उड़ए पसारल पांखि।”
यहाँ कवि ने कुछ ही शब्दों में सौंदर्य और प्रेम की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति कर दी है, जो उनकी संक्षिप्तता की विशेषता को दर्शाता है।
6. विद्यापति के गीतों में मुक्तक शैली
गीतिकाव्य सामान्यतः मुक्तक शैली में रचा जाता है। मुक्तक शैली का अर्थ है कि प्रत्येक गीत अपने आप में संपूर्ण होता है, और उसमें एक ही भाव या विषय की पूर्ण विवृत्ति होती है। विद्यापति के गीत इसी प्रकार की मुक्तक शैली में रचे गए हैं, जिसमें प्रत्येक गीत एक स्वतंत्र इकाई की तरह होता है। उदाहरण:
“सुधा मुखि के पिहि निरमल बाला अपरूत रूपमनोभव मंगल त्रिभुवन विजयी माला। सुन्दर बदन चारु अरु लोचन काजर रंजित भेला।”
यह गीत एक स्वतंत्र भाव की विवृत्ति है और इसमें एक ही स्थिति और अनुभूति की अभिव्यक्ति होती है, जिससे यह मुक्तक शैली का सुंदर उदाहरण है।
निष्कर्ष
विद्यापति ने गीतिकाव्य को अपने समय में जो ऊँचाई दी, वह आज भी अप्रतिम है। उनके गीतों में भावात्मकता, वैयक्तिकता, संगीतमयता, संक्षिप्तता और कोमलता के गुणों का अद्भुत समन्वय है। विद्यापति के गीत आज भी लोक में जीवित हैं और उनकी गेयता, संगीतात्मकता और सरलता के कारण वे आज भी गाए जाते हैं। विद्यापति के गीतिकाव्य का यह मूल्यांकन स्पष्ट करता है कि उन्होंने हिन्दी गीतिकाव्य को न केवल एक दिशा दी, बल्कि उसे सम्पूर्णता भी प्रदान की। उनके गीतों में प्रेम, भक्ति और सौंदर्य का ऐसा संयोजन है, जो उन्हें सदियों तक प्रासंगिक बनाए रखेगा। डॉ. शिव प्रसाद सिंह ने विद्यापति के गीतों के सम्बन्ध में कहा –
“विद्यापति में लय और तर्ज की मौलिकता तो है ही, एक अछूती भाव संवेदन को व्यक्त करने में समर्थ ग्राम्यता या नैसर्गिकता भी दिखाई पड़ती है। इसी कारण गीतों में इतनी आत्मीयता और निकटता भरी है कि अंपढ़, गँवार व्यक्ति भी इनका पूरा प्रभाव ग्रहण कर लेता है।”
विद्यापति के गीतिकाव्य ने हिन्दी साहित्य को जो स्वरूप और समृद्धि प्रदान की है, वह उनके अद्वितीय काव्य-कौशल और गीतिकाव्य के प्रति उनकी गहन निष्ठा का परिणाम है। उनके गीतों की संगीतमयता, गेयता और भावप्रवणता उन्हें हिन्दी साहित्य के अमर कवियों में स्थापित करती है।