अनुवाद की पाश्चात्य परम्परा | Anuvad ki Paschatya Parampara

अनुवाद की पाश्चात्य परम्परा | Hindi Stack

अनुवाद एक लिखित विधा है किन्तु अनुवाद का आरम्भ अनुकथन के रूप मे हुआ था। अनुकथन का अर्थ था किसी के कहने के बाद कहना। अत: प्रारम्भ पहले अंत: भाषिक स्तर पर हुआ। इसका अर्थ है एक ही भाषा–भाषियों के मध्य संप्रेषण। बाद मे इस विधा का विकास भाषान्तर अर्थात अंतर्भाषिक स्तर पर हुआ। यही कालांतर मे अनुवाद कहलाया। आज अनुवाद मानव सभ्यता के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है, और इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितनी कि भाषाओं की उत्पत्ति। पाश्चात्य परंपरा में अनुवाद की यात्रा एक गहरे सांस्कृतिक, दार्शनिक और भाषाई चिंतन से भरी रही है, जो केवल शब्दों के स्थानांतरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दो भाषाओं के बीच अर्थ, संस्कृति और विचारधारा का सेतु है।

बीसवीं शताब्दी में अनुवाद के सिद्धांत और प्रथाओं ने अभूतपूर्व विकास किया। इस दौर में अनुवाद को केवल भाषा के शब्दों के अनुवाद के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि इसे एक सांस्कृतिक और सैद्धांतिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया। पाश्चात्य विद्वानों और विचारकों ने अनुवाद के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण किया, जिसमें भाषा विज्ञान, सांस्कृतिक संदर्भ, और पाठ के संदर्भ में अनुवाद की चुनौतियों को समझने का प्रयास किया गया।

इस शताब्दी में जॉर्ज स्टीमर, यूजीन नाइडा, जे.सी. कैटफ़ोर्ड, और सुसान बेसनेट जैसे प्रमुख विद्वानों ने अनुवाद के सिद्धांतों को स्थापित किया और अनुवाद अध्ययन को एक शैक्षणिक अनुशासन के रूप में विकसित किया। उन्होंने अनुवाद को एक संपूर्ण विज्ञान के रूप में देखा, जिसमें भाषा की संरचना, संस्कृति, संदर्भ, और समाज के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। यह लेख अनुवाद की पाश्चात्य परंपरा की बीसवीं शताब्दी की यात्रा को समझने का एक प्रयास है। इसमें उन प्रमुख सिद्धांतों, विचारों और दृष्टिकोणों पर चर्चा की गई है, जिन्होंने अनुवाद के क्षेत्र को गहराई से प्रभावित किया और इसे आधुनिक युग के सांस्कृतिक और भाषाई अध्ययन का अभिन्न हिस्सा बना दिया।

अनुवाद की पाश्चात्य परम्परा

पश्चिम मे अनुवाद की परम्परा कब शुरू हुई यह कहना कठिन है। पश्चिम मे रोजेटा स्टोर (Rosetta Store) को अनुवाद का प्रथम प्रमाण माना जाता है। यह एलेक्जेंडिया से लगभग 10 किलोमीटर दूर Rosetta नामक स्थान पर लगे एक स्टोर से पता चला था। इस पर मिस्र तथा ग्रीक की (यूनानी) भाषा मे कुछ लिखा था। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी मे असीरिया का राजा सरगाव अपने राज्य की घोषणाये कई भाषा मे करवाता था। ये घोषणाये मूल रूप मे असीरियाई भाषा मे होती थी, और इनका अनुवाद करवाया जाता था। हम्मूरबी (Hammurabi) राजा के शासन काल मे बेबीलोन एक बहुभाषी नगर था। राजा ने अपने नगर मे कई लेखक नियुक्त कर रखे थे जो राज्य के आदेशों क भिन्न-भिन्न भाषाओं मे अनुवाद किया करते थे। ये लोग संदर्भ कोष भी बनाते थे।

बाइबिल का अनुवाद

बाइबिल का हिंदी अनुवाद
बाइबिल का हिंदी अनुवाद | anuwad ki paschatya parampara

सर्वप्रथम बाइबिल के हिब्रु संस्करण का ग्रीक (यूनानी) भाषा मे अनुवाद हुआ, इस अनुवाद को सेप्टुआजेंट (Septuajent) कहा जाता है। 70 अनुवादकों ने इसका सत्तर दिन मे अनुवाद पूरा कियाशायद इसीलिये इसका नाम सेप्टुआजेंट (सत्तर) पड़ गया। लैटिन मे भी बाइबिल के अनुवाद हुए। लैटिन मे साहित्य की कई अन्य कृतियों के अनुवाद भी हुए है। यूनानी उस समय की समृद्ध भाषा थी अत: यूनान से कम और यूनानी भाषा मे अधिक अनुवाद किया गया। अत: लगभग 240 ईसा पूर्व मे होमर के ग्रीक महाकाव्य ओडेसी (oddessy) पद्द्यानुवाद लिवियस एंड्रोनिकस (Livius Andronicus) ने किया सिसरो ने प्लेटो के pryagorus का लैटिन मे अनुवाद किया । इस अनुवाद मे भावों के स्थान पर शब्दों को अधिक महत्व दिया गया।

न्यू टेस्टामेंट-

इसका अनुवाद सेंट जेरोम ने किया। इस अनुवाद मे शाब्दिक अनुवाद के स्थान पर भावानुवाद (sense for sense and word for word) की शैली अपनायी गयी। सेंट जेरोम के अनुवाद के क्षेत्र मे रचनात्मक योगदान के लिये उन्हे अनुवादकों का मसीहा कहा जाता है। अब तक के बाइबिल के अनुवादो मे उनका अनुवाद सबसे अच्छा था।

रिनेसा या पुनर्जागरण–

इस काल को अनुवाद का स्वर्ण युग कहा जाता है। अब धार्मिक ग्रंथों के अलावा जनरुचि के विषयों का भी अनुवाद होने लगा। रोम मे मुख्यतया यूनानी भाषा से ही अनुवाद किये गये। इस काल का उल्लेखनीय नाम मार्टिन लूथर का है। जिन्होंने 1522 मे न्यू टेस्टामेंट का जर्मन भाषा मे अनुवाद सम्बंधी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। लूथर के अनुवाद सम्बंधी सिद्धांतों का प्रभाव जर्मन व अंग्रे़जी अनुवादकों पर पड़ा। उनके समकालीन डाले (Dole) ने अनुवाद पर लेख लिख कर अपने विचारों का प्रतिपादन किया और यह बताया कि अनुवादक के गुण क्या होने चाहिए और अनुवाद से सबंधित निम्नलिखित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। जैसे :

  1. अनुवादक का दोनों भाषाओं पर अधिकार हो।
  2. अनुवादक को लेखक के कथ्य और आशय को आत्मसात कर अनुवाद करना चाहिये।
  3. शब्दानुवाद नहीं भावानुवाद करना चाहिये।
  4. अनुवाद मे सरल और बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करना चाहिये।
  5. शब्द-चयन एवम्‌ वाक्य-विन्यास ऐसा हो कि मूल भाषा का प्रभाव व्यक्त हो सके।

अंग्रेजी अनुवाद की परम्परा

इंग्लैंड में अंग्रे़जी अनुवाद की परंपरा 9वीं शती से प्रारम्भ हुई और 16वीं शताब्दी तक काफी सुद्रढ़ हो गयी। जान विकिल्फ (1320) ने अंग्रेजी मे बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट का पहला अनुवाद किया। तत्पश्चात हिब्रू, ग्रीक, और लैटिन के अनुवादो के आधार पर अंग्रेजी मे कई अनुवाद हुए। 1604 मे जेम्स प्रथम ने 47 अनुवादकों को बाइबिल के अधिकृत अनुवाद के लिये नियुक्त किया गया। यह अनुवाद 1611 मे पूरा हुआ। यह अब तक का सबसे अच्छा अनुवाद था। अंग्रेजी मे बाइबिल के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों के अनुवाद भी किये गये। अब्राहम काउले (1618-67) ने ग्रीक कवि पिंडर के ओड्स का अनुवाद किया और उसे उन्होने काफी स्वच्छंदता से किया।

फिट्जेराल्ड (1809-1883 ) –

फिट्जेराल्ड ने कई कृतियों के अनुवाद किये किंतु उनका प्रसिद्ध अनुवाद उमर खय्याम की रुबाइयों का अनुवाद है। वे शब्दानुवाद के नहीं अपितु भावानुवाद के समर्थक थे। उनका मानना था कि

“एक मरे हुए बाज से एक जीवित गौरैया बेहतर है”

अर्थात वे जीवंत अनुवाद के समर्थक थे। (Better a live sparrow than a stuffed eagle)

बीसवीं शताब्दी के दौरान अनुवाद की पाश्चात्य परम्परा

बीसवीं शताब्दी में अनुवाद की पाश्चात्य परंपरा में उल्लेखनीय बदलाव और विकास हुए। इस समय अनुवाद को केवल एक भाषाई गतिविधि के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि इसे सांस्कृतिक, सैद्धांतिक और दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में भी समझा जाने लगा। यह वह समय था जब अनुवाद के सिद्धांत और प्रथाओं पर गहन चर्चा और अनुसंधान हुए, जिसके कारण अनुवाद को एक स्वतंत्र शैक्षणिक विषय के रूप में मान्यता मिली। इस शताब्दी में कई पश्चिमी विद्वानों ने अनुवाद के नए सिद्धांतों और मॉडल्स का प्रतिपादन किया, जिनका प्रभाव आज भी अनुवाद अध्ययन पर देखा जा सकता है।

पाश्चात्य अनुवाद परम्परा का आरंभिक दौर

पाश्चात्य अनुवाद परंपरा की जड़ें प्राचीन ग्रीस और रोम से जुड़ी हैं, लेकिन बीसवीं शताब्दी तक आते-आते अनुवाद के दृष्टिकोण में गहरे बदलाव आए। मध्ययुगीन यूरोप में अनुवाद मुख्यतः धार्मिक ग्रंथों, जैसे बाइबिल, के अनुवाद तक सीमित था। लेकिन बीसवीं शताब्दी में अनुवाद की परिभाषा का दायरा और व्यापक हुआ। यह केवल धार्मिक या साहित्यिक अनुवाद तक सीमित नहीं रहा, बल्कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, समाजशास्त्र और राजनीति जैसे क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण हो गया।

आधुनिक अनुवाद सिद्धांतों का विकास

बीसवीं शताब्दी के दौरान अनुवाद को लेकर कई प्रमुख सिद्धांतों का विकास हुआ, जिन्होंने अनुवाद अध्ययन को सैद्धांतिक रूप से समृद्ध किया। इस समय के प्रमुख सिद्धांतों में समतुल्यता (Equivalence), अनुकूलन (Adaptation), और कार्यात्मकता (Functionalism) जैसे सिद्धांत शामिल हैं।

  1. समतुल्यता (Equivalence) सिद्धांत:
    इस सिद्धांत को जॉर्ज स्टीमर और यूजीन नाइडा जैसे विद्वानों ने प्रमुखता से प्रस्तुत किया। समतुल्यता का सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि अनुवाद का लक्ष्य पाठ के अर्थ, शैली और संदर्भ का एक समान रूप से अनुवाद करना है, ताकि अनुवादित पाठ का प्रभाव स्रोत पाठ के समान हो। नाइडा की गतिशील समतुल्यता (Dynamic Equivalence) ने इस सिद्धांत को और अधिक व्यावहारिक रूप में परिभाषित किया, जिसमें अनुवाद का उद्देश्य स्रोत और लक्ष्य भाषा के पाठकों पर समान प्रभाव डालना था।
  2. डिकोडिकरण और पुन: कोडिकरण:
    जे.सी. कैटफ़ोर्ड ने अनुवाद को एक भाषाई गतिविधि के रूप में देखा, जिसमें स्रोत भाषा के पाठ को डिकोड करना और उसे लक्ष्य भाषा में पुन: कोड करना शामिल है। यह सिद्धांत भाषा की संरचना और अर्थ की वैज्ञानिक समझ पर आधारित था, जो अनुवाद प्रक्रिया को अधिक सटीक और प्रणालीबद्ध बनाता है।
  3. कार्यात्मकता (Functionalism):
    बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जर्मन विद्वानों जैसे कैथरीना रीइस और हंस जे. वर्मर द्वारा कार्यात्मक अनुवाद सिद्धांत का विकास किया गया। इस सिद्धांत के अनुसार अनुवाद का उद्देश्य केवल मूल पाठ के प्रति वफादारी नहीं है, बल्कि लक्ष्य पाठ के संदर्भ और उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उसे अनुकूलित करना है। इस सिद्धांत में अनुवाद की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका को भी महत्व दिया गया है।

सांस्कृतिक मोड़ (Cultural Turn) और अनुवाद

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अनुवाद अध्ययन में एक और महत्वपूर्ण विकास हुआ, जिसे सांस्कृतिक मोड़ (Cultural Turn) कहा जाता है। इस विचारधारा ने अनुवाद को केवल भाषाई प्रक्रिया तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे एक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में देखा। इसके तहत यह माना गया कि हर अनुवादक अपनी संस्कृति, समाज और ऐतिहासिक संदर्भों से प्रभावित होता है, और इस कारण अनुवाद के दौरान पाठ की संस्कृति और संदर्भ को ध्यान में रखना आवश्यक है।

इस मोड़ का प्रमुख रूप से विकास सुसान बेसनेट और आंद्रे लेफेवेर जैसे विद्वानों के काम से हुआ। इन विद्वानों ने अनुवाद प्रक्रिया में पाठ के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों को अधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि अनुवादक न केवल एक भाषा से दूसरी भाषा में पाठ को स्थानांतरित करता है, बल्कि वह उस संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है, जिसके लिए अनुवाद किया जा रहा है।

उत्तर औपनिवेशिक अनुवाद सिद्धांत

बीसवीं शताब्दी के अंत तक अनुवाद अध्ययन में उत्तर औपनिवेशिक (Postcolonial) सिद्धांत का उदय हुआ। इस सिद्धांत ने उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया, जिनसे उपनिवेशवादी और उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में अनुवाद को देखा जाता था। अनुवाद को औपनिवेशिक शासन के एक साधन के रूप में भी देखा गया, जहां अनुवाद के माध्यम से एक संस्कृति को दूसरी संस्कृति पर थोपने का प्रयास किया गया। हुम्बर्टो एको, गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक, और होमी के. भाभा जैसे विचारकों ने इस बात पर जोर दिया कि अनुवाद की प्रक्रिया में सत्ता, पहचान और संस्कृति के मुद्दे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

उत्तर औपनिवेशिक सिद्धांत के अनुसार, अनुवादक को अपने पाठ और पाठक के संदर्भ में औपनिवेशिक धारणाओं से मुक्त रहकर काम करना चाहिए। स्पिवाक ने विशेष रूप से अनुवाद को “संस्कृति का अनुवाद” कहा, जहां अनुवादक को न केवल भाषा के प्रति सजग रहना चाहिए, बल्कि उस सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भ को भी ध्यान में रखना चाहिए, जिसमें पाठ उत्पन्न हुआ है।

अनुवाद की पाश्चात्य परम्परा का योगदान

बीसवीं शताब्दी के दौरान अनुवाद की पाश्चात्य परंपरा ने अनुवाद को एक गंभीर और विशिष्ट अध्ययन के रूप में उभारा। इस समय के सिद्धांतों ने अनुवादक को केवल भाषा विशेषज्ञ के रूप में नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक मध्यस्थ के रूप में देखने पर जोर दिया। अनुवादकों को भाषाई सटीकता के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों का भी ध्यान रखना सिखाया गया। इस शताब्दी में किए गए अध्ययन और अनुसंधान ने अनुवाद प्रक्रिया को बेहतर समझने में मदद की और इसे एक बहुस्तरीय गतिविधि के रूप में स्थापित किया।

निष्कर्ष

बीसवीं शताब्दी में अनुवाद की पाश्चात्य परंपरा ने अनुवाद को न केवल भाषाई स्तर पर समझा, बल्कि इसे सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देखा। यह वह समय था जब अनुवाद के सिद्धांतों ने भाषाई सीमा से बाहर निकलकर व्यापक सामाजिक संदर्भों में अपनी जगह बनाई। अनुवाद अब केवल एक भाषा से दूसरी भाषा में शब्दों के स्थानांतरण तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और दार्शनिक प्रक्रिया के रूप में उभरा, जिसमें सत्ता, पहचान और संस्कृति के मुद्दे महत्वपूर्ण बन गए। इस पाश्चात्य परंपरा के विकास ने अनुवाद अध्ययन को एक गंभीर और व्यापक विषय के रूप में स्थापित किया, जो आज भी साहित्य, समाजशास्त्र, और भाषा विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है।

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