प्रेमचंद के फटे जूते : हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई का निबंध प्रेमचंद के फटे जूते Hindi stack

हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा “प्रेमचंद के फटे जूते” एक गहन और मार्मिक रचना है, जो न केवल महान लेखक प्रेमचंद की सादगी और संघर्ष को उजागर करती है, बल्कि समाज में व्याप्त दिखावे और सतही जीवन मूल्यों पर तीखा व्यंग्य भी करती है। इस कथा में परसाई जी ने प्रेमचंद के फटे जूते के प्रतीक के माध्यम से एक गहरा संदेश दिया है। प्रेमचंद, जिन्होंने भारतीय साहित्य में गरीबों, किसानों और पीड़ित वर्गों की समस्याओं को अपने लेखन में चित्रित किया, स्वयं एक साधारण और संघर्षमय जीवन जीते रहे। परसाई की यह कथा प्रेमचंद के उस जीवन-दर्शन को व्यक्त करती है, जिसमें दिखावा या बाहरी आडंबर से अधिक, वास्तविकता और संघर्ष को प्राथमिकता दी गई है। यह कहानी न केवल प्रेमचंद के व्यक्तित्व को दर्शाती है, बल्कि समाज के उन लोगों की ओर भी इशारा करती है जो अपनी कमजोरियों और संघर्षों को छिपाकर समाज में खुद को प्रस्तुत करते हैं।

“प्रेमचंद के फटे जूते” व्यंग्य के माध्यम से जीवन के गहरे सत्य को उकेरती है और पाठकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि वास्तविकता से भागना या उसे छिपाना ही सच्चा जीवन नहीं है, बल्कि संघर्ष को स्वीकारते हुए, समाज के सामने सच को प्रकट करना ही सच्चा जीवन है।

प्रेमचंद के फटे जूते : हरिशंकर परसाई

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फ़ोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।

पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।

दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूं-फ़ोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी-इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फ़ोटो में खिंच जाता है।

मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूं। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फ़ोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फ़ोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!

यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहने फ़ोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है!

फ़ोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिंचाते। फ़ोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फ़ोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फ़ोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूं, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।

तुम फ़ोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फ़ोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फ़ोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फ़ोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फ़ोटो खिंचाते हैं जिससे फ़ोटो में ख़ुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फ़ोटो भी ख़ुशबू देती है!

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से क़ीमती रहा है। अब तो जूते की क़ीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फ़ोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!

मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर क़ुर्बान हो रहे हैं!

तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फ़ोटो तो ज़िंदगीभर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फ़ोटो के ही छाप दे।

तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है यह?

क्या होरी का गोदान हो गया?

क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?

क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?

नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है।

मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूं। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?

क्या बहुत चक्कर काटते रहे?

क्या बनिए के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?

चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फ़तेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा,‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’

और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था, ‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’

चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?

मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।

तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!

तुम्हारी यह पांव की अंगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?

तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?

मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूं।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो-मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?

मैं समझता हूं। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूं, अंगुली का इशारा समझता हूं, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूं!

हरिशंकर परसाई द्वारा कथाकार मुन्शी प्रेमचन्द पर लिखा हुआ हास्य व्यंग्य यहाँ सुने!

हरिशंकर परसाई के निबंध प्रेमचंद के फटे जूते का सारांश

हरिशंकर परसाई की रचना “प्रेमचंद के फटे जूते” एक गहरा व्यंग्य है जो हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद के जीवन की सादगी और संघर्ष को चित्रित करता है। यह कहानी प्रेमचंद की एक तस्वीर के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसमें वे अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए हैं, साधारण धोती-कुर्ता और एक मोटी टोपी पहने हुए। परसाई की दृष्टि प्रेमचंद के फटे हुए जूतों पर अटक जाती है, जिसमें बाएं पैर की उँगली बाहर निकली हुई है। यह साधारण-सी तस्वीर प्रेमचंद के जीवन की कठिनाइयों और गरीबी का प्रतीक बन जाती है।

कहानी की शुरुआत में परसाई सोचते हैं कि फ़ोटो खिंचवाने जैसे विशेष अवसर के लिए भी प्रेमचंद ने इतने साधारण और फटे जूते क्यों पहने। लेखक की यह विचारधारा हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि प्रेमचंद ने जीवन में कभी दिखावे का सहारा नहीं लिया। वे जैसा थे, वैसा ही दिखने में विश्वास करते थे। उनके व्यक्तित्व में सादगी थी, और उनके लिए बाहरी आडंबर का कोई महत्व नहीं था। उनकी गरीबी उनके आत्मसम्मान या सामाजिक योगदान के सामने कभी बाधा नहीं बनी।

परसाई सोचते हैं कि फ़ोटो खिंचवाने के लिए लोग उधार की चीज़ें माँग लेते हैं, जैसे कपड़े, जूते, यहाँ तक कि पत्नी भी। लेकिन प्रेमचंद ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने समाज में व्याप्त दिखावे के विपरीत, अपनी वास्तविकता को ही प्रस्तुत किया। लेखक को यह बात चुभती है कि प्रेमचंद जैसे महान लेखक, जिन्होंने भारतीय समाज को अपने साहित्य के माध्यम से एक दिशा दी, उनकी जीवन स्थितियाँ इतनी दयनीय थीं कि उनके पास फ़ोटो खिंचवाने के लिए भी सही जूते नहीं थे।

कहानी का एक महत्वपूर्ण पहलू प्रेमचंद की व्यंग्य भरी मुस्कान है, जो लेखक को बेचैन कर देती है। लेखक इस मुस्कान के पीछे छिपे अर्थ को समझने की कोशिश करते हैं। यह मुस्कान उस गहरे व्यंग्य की प्रतीक है जो प्रेमचंद के संघर्षशील जीवन और समाज की विडंबनाओं पर सवाल उठाती है। लेखक सोचते हैं कि यह मुस्कान शायद उन लोगों पर व्यंग्य है जो जीवन में दिखावे और सामाजिक मान्यताओं के पीछे भागते हैं, जबकि प्रेमचंद ने सच्चाई को ही अपना आधार बनाया।

फटे जूते के प्रतीक के माध्यम से परसाई समाज की विसंगतियों को उजागर करते हैं। प्रेमचंद का फटा जूता उनके संघर्ष, साधारण जीवन और समाज की बुराइयों के प्रति उनके विरोध का प्रतीक बन जाता है। लेखक मानते हैं कि प्रेमचंद ने जीवन की कठिनाइयों और सामाजिक बाधाओं से टकराकर अपने जूते फाड़ लिए, लेकिन उन्होंने कभी अपनी आत्मा और सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।

कहानी के अंत में, लेखक अपनी तुलना प्रेमचंद से करते हैं। लेखक का जूता ऊपर से अच्छा दिखता है, लेकिन अंदर से घिसा हुआ है। इसका मतलब यह है कि लेखक भी समाज में दिखावे का ध्यान रखते हैं, लेकिन भीतर से वे संघर्षों से घिरे हुए हैं। इसके विपरीत, प्रेमचंद का जूता फटा हुआ है, लेकिन उनका मन और आत्मा मजबूत है। प्रेमचंद ने अपने जीवन में समाज की कठोर सच्चाइयों से सीधा मुकाबला किया, जबकि लेखक जैसे लोग समाज के साथ समझौता करने के लिए तैयार रहते हैं।

निष्कर्ष रूप से देखा जाए तो लेखक “प्रेमचंद के फटे जूते” के माध्यम से प्रेमचंद के जीवन और उनके संघर्षों की गहरी झलक देती है। परसाई ने इस व्यंग्य के माध्यम से न केवल प्रेमचंद की सादगी और संघर्षशीलता को प्रस्तुत किया, बल्कि समाज में व्याप्त दिखावे और आडंबर पर भी तीखा प्रहार किया है। एक साधारण फ़ोटो में प्रेमचंद का फटा जूता केवल उनकी गरीबी का प्रतीक नहीं, बल्कि उनके सत्य के प्रति अडिग रहने और सामाजिक बुराइयों से लड़ने की भावना का प्रतीक भी है।

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