“अकाल और उसके बाद” नागार्जुन की एक अत्यंत मार्मिक और प्रभावशाली कविता है, जो उनकी रचना संचयन में संकलित है। यह कविता 1952 में रची गई थी और इसका प्रकाशन साहित्य अकादमी द्वारा संपादित “नागार्जुन रचना संचयन” (संपादक: राजेश जोशी, पृष्ठ 100, संस्करण: 2017) में किया गया है। इस कविता में नागार्जुन ने अकाल की भयावहता और उससे उत्पन्न मानवीय पीड़ा का सजीव चित्रण किया है। “अकाल और उसके बाद” कविता उनकी उस गहन सामाजिक चेतना का प्रमाण है, जिसमें वे समाज के निचले तबके और साधारण जनजीवन की तकलीफों को अपनी कलम के माध्यम से सामने लाते हैं।
नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद
इस कविता में 1943 के बंगाल अकाल की त्रासदी को दर्शाया गया है, जिसने लाखों लोगों को भुखमरी और मृत्यु की ओर धकेल दिया। नागार्जुन ने अकाल की स्थिति और उसके बाद की परिस्थितियों का वर्णन अत्यंत सहज और सरल भाषा में किया है, जिसमें घर के रोजमर्रा के उपकरण, जैसे चूल्हा, चक्की, और कुतिया के माध्यम से अकाल की पीड़ा को उजागर किया गया है। नागार्जुन ने इस कविता में साधारण प्रतीकों और रोजमर्रा की भाषा का उपयोग करते हुए अकाल की विभीषिका और उसके बाद के संघर्ष को बड़े मार्मिक और वास्तविक ढंग से प्रस्तुत किया है, जो इसे अत्यधिक प्रभावशाली और यथार्थवादी बनाता है। इसकी संपूर्ण व्याख्या यहाँ पढ़ें अकाल और उसके बाद कविता की व्याख्या