“यह है मैला आँचल ; एक आँचलिक उपन्यास। कथानक पूर्णिया। मैंने इसके एक हिस्से के गांव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथानक बनाया है।”
यहाँ से हिंदी कथा साहित्य में ‘आंचलिक’ शब्द उपन्यासों के साथ जुड़ता चला गया। हिंदी आँचलिक उपन्यासों की धारा पाश्चात्य आँचलिक उपन्यासों की धारा से प्रभावित है। जिसे ‘टॉमस हार्डी’, ‘फाकनर’ आदि उपन्यासकारों ने शुरू की थी। फिजिल बेंटले अपनी पुस्तक दि इंगलिश रीजनल नॉविल में आँचलिक उपन्यास पर दृष्टि डालते हुए कहते हैं- एक आंचलिक उपन्यास एक राष्ट्रीय उपन्यास है जो एक खंड विशेष, क्षेत्र विशेष, अंचल विशेष और राष्ट्र विशेष के जीवन का चित्रण इस ढंग से करता है जिससे पाठक वहाँ की समग्र विशेषताओं से पूर्ण परिचित हो सकें।
डॉ• देवराज उपाध्याय के अनुसार:“आँचलिक उपन्यास में उपन्यासकार अपने को देश के एक हिस्से के जीवन पर केंद्रित करता है, और उस जीवन की विशिष्ट प्रवर्तियों, विशष्ट गुणों, असामान्य जीवन-पद्धति तथा रीति रिवाजों के संबंद्ध में पाठकों की चेतना को जाग्रत करता है।”
आँचलिक उपन्यासकार अपनी औपन्यासिक कथावस्तु का चयन पिछड़े समाज के लोक-जीवन से करता है। इसमें मुख्यतः किसी जाति विशेष एक परम्परागत चित्रण होता है। यह जाति देहात के किसी अँचल-विशेष की हो सकती है, नगर के किसी मुहल्ले की भी हो सकती है। फलतः ‘जातियता’ आँचलिक उपन्यास रचने की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।
आँचलिक उपन्यास का कथा-क्षेत्र सीमित होता है। आँचलिकता की सिद्धि के लिये स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्योहार, लोक-गीत, मुहावरे-लिकोक्तियाँ, आचरण की विकृतियाँ, बातचीत का विशष्ट ढंग व भाषा, लोगों की स्वभावगत विशेषतायें, उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यतायें आदि का समावेश बड़ी सतर्कता और सावधानी से किया जाता है। आँचलिक रचना भले ही सीमित क्षेत्र से सम्बंधित हो, पर प्रभाव की दृष्टि से वो सार्वजनिक हो सकती है। बशर्ते उसका सृष्टा वैसी प्राणवत्ता व अतल-स्पर्शी सूक्ष्म-दृष्टि रखता हो तथा उसके विचारों में गरिमा हो।
‘मैला आँचल’ ग्रामीण अंचल की ओर संकेत करता है। यह ग्रामीण अंचल अज्ञान, अंधविश्वास, दरिद्रता, बीमारी और जमीदारों के द्वारा किये जा रहे शोषण के कारण अपनी उज्जवलता को खोकर मैला हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘रेणु’ ने इस शीर्षक को ‘सुमित्रानंदन पंत’ की प्रसिद्ध कविता “ग्राम्या” से लिया है:
“भारत माता ग्रामवासिनी खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा मैला – सा आँचल”
उपन्यास मेरीगंज में जिला बोर्ड की ओर से आय हुए लोगों के प्रसंग से आरम्भ होता है। वे लोग यहाँ एक मलेरिया निरोधक केंद्र की स्थापना करना चाहते हैं। नगर की दिशा से ऐसा होने वाला नया कार्य इस गाँव के जीवन मे तरंगे उठाने वाली नई घटना है। डॉ. प्रशांत कुमार गाँव मे आता है और गाँव के जीवन मे रमकर यहाँ के रोगियों का इलाज और मलेरिया, काला-आजार रोगों के कारणो पर शोध करता है। उसका वैज्ञानिक शोध धीरे-धीरे वहाँ के जीवन को देखते हुए समाजवैज्ञानिक शोध का रूप धारण कर लेता है। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि गाँव मे फैले रोगों और कष्टों का कारण प्रकृति की देन कोई कीटाणु नहीं, वरन यहाँ की सामाजिक स्थिति है । डॉ. प्रशान्त के अनुसार –
“गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु हैं।”
वह गाँव सबसे बड़े शोषक तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद की एकमात्र पुत्री कमला के हिक्टीरिया रोग का इलाज करते-करते उससे प्रेम करने लगता है। वह शहरी नेताओं के षड्यंत्रवश जेल भी जाता है और छूटने पर पत्नी, पुत्र और परिवार को संभालता है। इसी खुशी में तहसीलदार अन्याय और जोर-जुल्म की कमाई किसानों में बाँट देता है। डॉ. प्रशांत निश्चय करता है –
“मैं साधना करूँगा, ग्रामवासिनी भारतमाता के आंचल तले। कम से कम एक ही गाँव के प्राणियों के मुरझाये ओंठों पर मुस्कुराहट ला सकूँ।”
यह सूत्र अंचल की कथा को रंगीन धागे की भाँति हल्के से लपेटता है। इसी प्रकार इन उपन्यास में डॉ. प्रशांत के अलावा कई अन्य पात्र भी हैं जैसे: बलदेव, मठ की दासिन लक्ष्मी, बावनदास, महंत रामदास इत्यादि उल्लेखनीय हैं। मैला आँचल की औपन्यासिक मूल्यांकन के लिये इसके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, संस्कृतिक, भौगोलिक चित्रण और भाषा आदि देखे जा सकते हैं –
सामाजिक चित्रण :
मेरीगंज की सामाजिक स्थिति की सूक्ष्म से सूक्ष्म सतहें आलोकित हो उठी है। गाँव मे जातिवाद बड़े प्रबल रूप में विद्यमान है। गाँव विभिन्न जातियों में बटा हुआ है। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोग से ईर्ष्या करते हैं। प्रशांत को भी सबसे पहले अपने नाम के बाद जाती बताने पर विवश किया गया। उस गाँव मे हिन्दू कहने से ही पिंड नहीं छूट सकता। ब्राह्मण हो ? ब्राह्मण कौन हो ? गोत्र क्या है ? ‘मैला आँचल’ में कमली, विश्वनाथ प्रसाद, डॉ प्रशांत आदि गिने चुने लोग ही जाती नहीं मानते। कालीचरण तो अछूतों के घर भात खाकर दिखलाता है।
सांस्कृतिक चित्रण :
अंचल विशेष के सांस्कृतिक पक्ष को उभारने के लिये रेणु ने मेलों और उत्सवों का विशद वर्णन किया है। मठ पर नए महंत को चादर मिलने का आयोजन, विदाप्त नाच, होली का उत्सव, लोकगीतों आदि का वर्णन अत्यंत विस्तारपूर्वक किया गया है। डॉ प्रशांत कुमार के पास भी लोग होली खेलने आए पर-
ऐसे अनेक स्थल हैं जिनके चित्रण में उपन्यासकार ने अपूर्व शक्ति का परिचय दिया है तथा कलात्मक अभिव्यक्ति के नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं।“डॉक्टर बेचारे के पास न अबीर है और न ही रंग की पिचकारी। यह एकतरफा होली कैसी ? …… लीजिये डाक्टर बाबू, अबीर लीजिए।”
आर्थिक प्रभाव :
आर्थिक दृष्टि से गाँव मे स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक और बाद में भी दो वर्ग दिखाई देते हैं एक जमीदारों का ओर दूसरा खेतीहरों, मजदूरों तथा अल्पमूधारकों का, जिन्हें अपनी जमीन होते हुए भी दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता था। धनाभाव के कारण गाँवों में अधिकांश लोग भूखे ओर नंगे रहते थे फिर भी इनमें जीने की अदम्य लालसा है। डॉ प्रशांत यह देखकर हैरान हो जाता है कि
“कफ से जकड़े हुए दोनों फेफड़े, ओढ़ने को वस्त्र नहीं, सोने की चटाई नहीं, पुआल भी नहीं। भीगी हुई धरती पर लेटा हुआ निमोनिया का रोगी मरता नहीं , जी जाता है …. कैसे ?”
मालिक टोला और अधिकारी वर्ग शोषण करने में बराबर लगे रहते हैं। उच्च जाति वाले धन और प्रभाव के बल पर निम्न वर्ग का शोषण करते हैं।
राजनीतिक चित्रण:
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के प्रत्येक उपन्यास में युगीन राजनीतिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। 1947 ई० के आसपास भारतीय राजनीति में कांग्रेस समाजवादी हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग आदि राजनीतिक पक्ष थे। सत्ताधारी पक्ष कांग्रेस का था। शहर से देहात तक आते-आते राजनीति किस प्रकार निजी स्वार्थों के लिए प्रयोग में लाई जाती है, इसका यथार्थ चित्रण ‘रेणू‘ ने अपने उपन्यासों “मैला आँचल” में किया है। ‘बालदेव’ कांग्रेस का गंवई नेता है। लेकिन बालदेव गांधीवादी विचारों से प्रभावित अशिक्षित, बड़े नेताओं की कठपुतली मात्र है। कोई निश्चित उद्देश्य उसके सामने नहीं है। केवल अहिंसावाद का उदघोष वह करता रहता है। समाजवादी पक्ष का नेता ‘कालीचरण’ है ,जो सच्चे दिल से सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व करने का प्रयत्न करता है, किन्तु पक्ष के उच्च पदस्थों के अन्याय के कारण अंततः डाकू बन जाता है । “मैला आँचल” के मेरीगंज गाँव में काली टोपी (हिंदू महासभा) भी है, वे लोग भी हिन्दू राज कायम करने के सपने देखते हुए अपने स्वार्थों की पूर्ति तक ही सीमित रहते हैं। “मैला आँचल” में ‘रेणु’ ने बावनदास को सच्चे गांधी-भक्त के रूप में प्रस्तुत किया है। वह राजनीति के विकृत स्वरूप के मूल तक पहुँच जाता है। वह कहता है,
राजनीति में सबकुछ जायज है।इसलिए बावनदास जैसे देश प्रेमी और गांधी जी की राह पर अड़िग व्यक्तियों को काला बाजारी के कुचक्र के नीचे कुचल कर समाप्त कर दिया जाता है।“यह बीमारी ऊपर से आयी है। यह पटनियां रोग है। ……..अब तो धूमधाम से फैलेगा। भूमिहार, राजपूत कैथ, जादव, हरिजन, सब लड़ रहे हैं। अगले चुनाव में तिगुना मेले चुने जायेंगे। किसका आदमी ज्यादा चुना जाए, इसी की लड़ाई है। यदि राजपूत पार्टी के लोग ज्यादा आए तो सबसे बड़ा मंत्री भी राजपूत होगा।”
धार्मिक चित्रण:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय गाँवों में धार्मिक स्थिति दयनीय थी। धर्म की आड़ में पैसा कमाना, ऐशों-आराम का जीवन गुज़रना, व्यभिचारी प्रवर्ति आदि धर्म प्रमुखों का काम हो गया था। भोली-भाली जनता की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाकर मठों, मंदिरों के अधिकारी महंत ऐयाशी करते थे। मठ का बूढ़ा गिद्ध महंत अनेक कुकर्म करता है। किंतु फिर भी लोग उसे “साहब बंदगी” करते हैं। मेरीगंज गाँव के धार्मिक विश्वासों एवं अंधविश्वासों का काफी विस्तृत प्रभाव है। मैथ की रखेलिन या दासी लक्ष्मीदासिन को महंत के मामले में कुछ बोलने का अधिकार नहीं है। मैथ के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ गाँजे जैसे मादक पदार्थों का सेवन किया जाता है, रखैलें पाली जाती हैं, सेवादास जैसे कामी महंत है। ऐसी ही अनेक बुराइयों के विस्तृत वर्णन ‘मैला आँचल’ में हुआ है।
भौगोलिक चित्रण:
मेरीगंज की भौगोलिक विशिष्टता का वर्णन एक दो बार हुआ है जी अंचल की प्राकृतिक वातावरण को स्पष्ट करता है, यथा –“मेरीगंज एक बड़ा गांव है- विरहुत कि प्राकृतिक सौंदर्य के बीच, धान के लहलहाते खेतों, कमलों से भरा हुआ सरोवरों-पोखरों और ताड़ के बनों के साथ , कमला नदी के किनारे मेरीगंज अपनी गति से चलता है- बरसात में कमला भर जाती है, बाकी मौसम में बड़े-बड़े गड्ढो में पानी जमा रहता है- मछलियों और कमल के फूलों से भरे हुए गड्ढे।”
अतः मैला आँचल अपने युग को पूरी तरह आत्मसात करके चला है, और साथ ही भारत की अतुलनीय लोकसंस्कृति की अपूर्व संपत्ति का इस उपन्यास में सर्वथा नवीन प्रयोग हुआ है।
भाषा :
आँचलिक उपन्यासों में अँचल विशेष की भाषा का कुछ सीमा तक प्रयोग रहता है। रेणु किसी प्रादेशिक बोली का उपयोग नही करते, अपितु उनके प्रायः सभी पात्र सामान्य बोली बोलते हैं। अंतर इतना ही है कि वे शब्द विशेष प्रकार से उच्चरित होते है। इन शब्दों का प्रयोग न केवल उपन्यास के पात्र परस्पर वार्तालाप में करते है, बल्कि उपन्यासकार अपने वर्णन में भी प्रचलित ग्रामीण शब्दों का उपयोग करता है। डॉ. गणेशन के अनुसार –
“निःसंदेह इस खिचड़ी भाषा के ग्रामीण वातावरण और ग्रामीण पात्रों के बाह्य स्वरूप का यथार्थ रूप प्रकट होता है।”
निष्कर्ष :
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक विशुद्ध आँचलिक उपन्यास के रूप में ‘मैला आँचल’ हिंदी साहित्य में प्रथम स्थान प्राप्त करने का अधिकारी है। इसमें ‘रेणु’ ने एक पिछड़े हुए गाँव ‘मेरीगंज’ के जीवन, बोल-चाल, गीत-संगीत, रहन-सहन, तीज-त्यौहार, हास-विलास, शोषण-पीड़ित, रूढ़िवादिता-प्रतिगामिता, तथा प्रगति-विद्रोही आदि तत्वों को बहुत ही कलात्मक रूप में चित्रित किया है। इसलिए इसका नायक कोई व्यक्ति-विशेष न होकर एक अँचल-विशेष माना जाता है तथा उपन्यासकार ने भूमिका में बिल्कुल उचित लिखा है- “यह है मैला आँचल, एक आँचलिक उपन्यास।”