राजनीतिक परिस्थिति :
आदिकाल की अवधि को 769 ई० से 1418 ई० तक माना गया है। वस्तुतः यह जबर्दस्त उथल पुथल का समय है। क्योंकि यही वह समय है जब वर्द्धन-साम्राज्य का पतन हुआ। इसी समय में उत्तरी भारत पर यवनों के आक्रमण भी होने लगे थे। जिससे ‘हर्ष वर्द्धन’ के साम्राज्य का भवन चरमरा गया था। इसके पतन के पश्चात आए राजपूत राजा भी धीरे-धीरे अपनी शक्ति समेटकर मुगल साम्राज्य की क्रोड़ में समा गए। हिंदूसत्ता के क्षय के साथ-साथ मुगल साम्राज्य का सूर्य प्रखर होने लगा। जन-जीवन उनके अत्याचारों का लक्ष्य बना हुआ था। राजपूत राजाओं में भी अंतर्कलह होने से ग्रहयुद्ध प्रारंभ हो गए। प्रजा इन राजाओं के अत्याचारों से दुःखी होकर त्राहि-त्राहि करने लगी। हिंदी-भाषी क्षेत्रों पर भी इसका प्रभाव पड़ा तथा इस काल का साहित्य जनता के आक्रोश एंव ओज का प्रतिफल बनकर सामने आया। आदिकाल का साहित्य निरन्तर युद्धों में जलते हुए तत्कालीन समाज का दर्पण है।
हिंदी-साहित्य के आदिकाल में ‘रासो-ग्रंथों’ की प्रचुरता है। इस काल के अधिकांश कवि राज्याश्रित थे। एक जागरूक सामाजिक होने , एंव अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने की प्रवृत्ति के कारण ही इस काल की अधिकांश गाथायें वीर रस को लेकर अभिव्यक्त करती हैं। यहां तक कि यह राज्याश्रयी कवि अपने मित्र एंव आश्रयदाता राजा के साथ युद्ध के मैदानों में जाकर शत्रु से वीरतापूर्ण मुकाबला भी करते थे। इन सभी कारणों से आदिकाल के साहित्य युद्धों का कहीं अतिशयोक्तिपूर्ण तथा कहीं स्वाभाविक वर्णन दिखाई पड़ता है।
धार्मिक परिस्थितयाँ:
आदिकाल में देश का धार्मिक वातावरण भी अशान्त था। ईसा की सप्तम शताब्दी में धार्मिक परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन आरम्भ हो गया। इससे पहले वैदिक यज्ञ, मूर्तीपूजा एंव बौद्ध-उपासना-पद्धतियाँ एकसाथ प्रचलित थीं, किन्तु अब आलम्बार एंव नायम्बार संत एक नया आंदोलन लेकर आये, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म की शक्ति घटने लगी। बारहवीं शताब्दी तक वैष्णव मत का आंदोलन भी जोर पकड़ने लगा। जनता के समक्ष नये-नये पन्थ एंव विचाधाराएँ प्रस्तुत कर उन्हें दिग्भ्रमित किया जाता रहा। उत्तर-भारत के पश्चिमी तथा पूर्वी प्रान्त सिद्धों एंव नाथों की वाणियों के प्रभाव में रहे। वस्तुस्थिति यह है कि धार्मिक दृष्टि से यह संक्रांति काल कहा जा सकता है। विविध सम्प्रदायों के पारस्परिक विरोध में अशिक्षित जेंट्स भी पिसकर अपना सम्बल खोती जा रही थी। इस काल की धार्मिक परिस्थितियों के अनुरूप ही साहित्य में भी खण्डन-मण्डन, हठयोग, वीरता एंव श्रृंगार का प्राधान्य है।
सामाजिक परिस्थितियाँ:
आदिकाल की राजनीतिक एंव धार्मिक परिस्थितियों का सीधा प्रभाव तत्कालीन समाज पर पड़ा । अशिक्षित जनता शासन एंव धर्म दोनों ओर से निराश्रित होकर अपना विश्वास खोने लगी । धार्मिक दृष्टि से भ्रामक विचारधाराओं के पाटों में पिसता हुआ समाज असहाय हो उठा। उच्च एंव निम्न वर्ग में समाज का विभाजन हो गया । जनता युद्धों एंव महामारियों की शिकार होकर त्राहि – त्राहि कर उठी । ऐसी विषम परिस्थितियों में नारी भी केवल भोग्या बनकर रह गई । किसी भी सुंदर नारी का अपहरण राजाओं का स्वभाव बन गया था-
“जिहि की बिटिया सुंदर देखी तिहि पर जाई धरे हथियार”
इस काल में सती प्रथा समाज के लिये अभिशाप बन चुकी थी। योगियों तथा सिद्धों से गृहस्थ आतंकित थे। निम्न वर्ग के लिये जीवन-यापन के साधन जुटाना भी कठिन से कठिनतर होता गया। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में कवियों ने भी एक नवीन ओजपूर्ण वातावरण की सृष्टिहेतु वीर रसपूर्ण काव्यों की रचना की।
(4) सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:
आदिकाल को भारतीय संस्कृति एंव मुस्लिम संस्कृति के संक्रमण एंव ह्रास-विकास का काल कहना उपयुक्त होगा। इस काल में विभिन्न जातियों, मतों एंव आचारों-विचारों में समन्वय की प्रक्रिया उत्कर्ष को प्राप्त थी। हर्षवर्द्धन के साम्राज्य ने हिन्दू धर्म एंव संस्कृति को व्यापक आधार दिया। इस काल की भारतीय संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति से बहुत गहराई तक प्रभावित है। स्थापत्यकला चर्मोत्कर्ष पर थी। भुवनेश्वर, खजुराहो, पुरी, सोमनाथपुर, तंजौर आदि स्थलों पर भव्य मंदिरों का निर्माण इसी काल में हुआ। इसी सांस्कृतिक भव्यता से मुस्लिम शासकों को द्वेष हुआ तथा वह इस वैभवशाली देश से निरन्तर आक्रमण कर इसे ध्वस्त करने व लूटने का प्रयास करने लगे। आदिकाल में उत्सव , मेले, मनोरंजन, आदि सभी में मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव झलकने लगा। चित्रकला के क्षेत्र में भी मुस्लिम प्रभाव पाया जाता है। इस प्रकार आदिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितयाँ इस्लाम के रंग से अछूती नहीं रह सकीं तथा कलात्मक चेतना का मुक्त स्वरूप लुप्त हो गया।
(5) साहित्यिक परिस्थितयाँ :
इस काल में साहित्य की तीन प्रमुख धाराएँ गंगा, यमुना व सरस्वती की भाँति प्रवाहित हुईं। इनमें एक धारा संस्कृत साहित्य की थी, दूसरी प्राकृत व अपभ्रंश की तथा तीसरी धारा हिंदी भाषा में लिखे जाने वाले साहित्य की थी। संस्कृत काव्यशास्त्र की आचार्य आनंदवर्धन, मम्मट, क्षेमेन्द्र, कुंतक, भोज, राजशेखर, विश्वनाथ, भवभूति आदि ने चर्मोत्कर्ष प्रदान किया। इसी काल में शंकर, कुमारिलभट्ट, भास्कर एंव रामानुज आदि आचार्यों ने आविर्भूत होकर अपने-अपने दार्शनिक सिद्धान्तों की स्थापना की। संस्कृत , प्राकृत एंव अपभ्रंश के श्रेष्ठ साहित्य की सर्जना भी इस युग मे हुई । जैन आचार्यों ने संस्कृत – पुराणों को एक नवीन रूप में प्रस्तुत किया तथा प्राकृत, अपभ्रंश एंव पुरानी हिंदी में साहित्य-सर्जना की। “संदेश-रासक” जैसा अमर काव्य-ग्रंथ रचकर अब्दुर्रहमान ने विपुल यश अर्जित किया। इस काल की परिस्थितियों ने संस्कृत एंव प्राकृत की अपेक्षा हिंदी भाषा को अधिक प्रभावित किया। हिंदी साहित्य में तत्कालीन परिस्थितियों का मुखरित रूप है।
निष्कर्ष:
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि किसी काल के साहित्य पर उस काल की विभिन्न परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। आदिकाल की भाषा ने भी जन-जीवन से प्रेरित हो अपना स्वरूप ग्रहण किया। हिंदी की अनेक परम्पराओं का मूल – रूप आदिकाल में देखा जा सकता है।
आदिकाल और उसकी परिस्थितियों से जुड़े इन प्रश्नों को हल करें :
- आचार्य हजारी प्रसाद जी रासो शब्द की व्युत्पति किस शब्द से मानते है ?
- आदिकाल को आधार काल किसने कहा?
- आदिकाल का कौन सा ग्रन्थ शिलाओं पर लिखा है?
- आदिकाल में मनोरंजन साहित्य की रचना किसने की?
- अपभ्रंश का व्यास किसे कहा गया है?
- हिंदी तथा अपभ्रंश में युद्ध प्रधान रस काव्य कौन कौन से है?
- अमीर खुसरो का जन्म किस स्थान इनमें से किस जिले में हुआ ?
- बीसलदेव रासो में कुल कितने छन्द हैं ?
- पृथ्वीराज रासो के संबंध में कौनसी धारणा सही है ?
- स्वयं को ‘ तोता-ए-हिन्द ‘ कहलाने वाला आदिकालीन कवि हैं
- आदिकाल में हिंसामूलक राजपूत राजाओं पर किस धर्म का प्रभाव था