भक्तिकाल में लोकोन्मुखी साहित्य सर्जन की प्रवृत्ति अधिक मुखर थी। अब इसमें सिद्धों, मुनियों, नाथों तथा सूफियों द्वारा प्रतिपादित विचारधाराएं पल्लवित होने लगीं। वास्तविकता यह है कि भक्तिकाल में भारत पर मुस्लिम शासन की छाया थी। मुस्लिम शासकों द्वारा इस्लाम धर्म के विस्तार पर जोर दिये जाने से जनता में भय का वातावरण व्याप्त था। देव – मंदिरों का विध्वंस, मूर्तियों का तोड़ा जाना, जन – सामान्य में निराशा एंव आक्रोश की मिली – जुली भावनाओं को जन्म दे रहा था। इन परिस्थितियों में आस्तिकता एंव ईश्वरोपासना ही एकमात्र अवलम्ब थी। इन युगीन भावनाओं के अनुरूप ही इस काल के कवियों का रचना – प्रयास रहा।
भक्तिकाल का सामान्य परिचय देते हुए डॉ० श्यामसुंदर दास लिखते हैं –
भक्तिकाल की सामान्य प्रवृत्तियां :- भक्तिकाल की सभी विचारधारायें एक ही लक्ष्य की ओर प्रवाहित होती हैं और वह लक्ष्य है – भक्ति। वैष्णव सम्प्रदाय, शैव-सम्प्रदाय, देवी सम्प्रदाय सभी का मूल भगवदविष्यक भक्ति है। निर्गुण एंव सगुण कवियों का प्राप्य भी परमात्मा ही है जिसे वह साकार एंव निराकार में देखते हैं।
भक्तिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों अथवा विशेषताओं का उल्लेख निम्नलिखित है –
- नाम की महत्ता :- भक्तिकाल की निर्गुण एंव सगुण दोनों ही शाखाओं में ईश्वर के जप – कीर्तन व राम – स्मरण को उससे भी बड़ा माना गया है।
कबीर ‘नाम’ के मर्म को इस प्रकार समझाते हैं –
तुलसी भी नाम की महत्ता को स्वीकार करते हुए राम के नाम को राम से बड़ा मानते हैं। उनके अनुसार राम ने तो केवल अहल्या का उद्धार किया था, किन्तु उनका नाम तीनों लोकों के उद्धार में समर्थ है।
- गुरु की महत्ता का प्रतिपादन :- भक्तिकाल में गुरु के प्रति विशेष सम्मान की भावना दृहतिगोचर होती है। निर्गुण काव्य – धारा के कबीर एंव सगुण काव्य – धारा के श्रेष्ठ तुलसी तथा कवि जायसी सभी गुरु के प्रति श्रद्धावान हैं।
कबीर कहते हैं –
तुलसी कहते हैं –
जायसी ने भी “गुरु सुआ मोहि पन्थ दिखावा” कहकर गुरु को ही अपना मार्गदर्शक माना है।
- भक्ति का प्राधान्य :- भक्तिकाल की सभी शाखाओं में भक्ति-भावना की प्रधानता रही है। निर्गुण, सगुण, सूफी सभी कवियों के काव्य का मूल भक्ति है। कबीर राम की भक्ति को संसार के सभी वैभवों से बड़ा मानते हैं तथा सगुण काव्य के सूरदास का चित्त भी ईश्वर के रूप में रमण करता है –
जायसी के चारों अवस्थाओं ( शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारिफ़त ) को भक्ति का साधन माना है। रामभक्त एंव कृष्णभक्त कवियों के काव्य को तो एकमात्र आधार भक्ति ही है। तुलसीदास की तो समस्त भक्तिभावना राम में डूबकर राममय हो उठी है।
यह तुलसी की भक्ति का चर्मोत्कर्ष ही है कि वह विष्णु के केवल राम रूप को ही प्रणाम करते हैं –
- संसार की असारता का चित्रण :- भक्तिकालीन काव्य मे दार्शनिकता पर जोर दिया गया है। कबीर संसार को असत्य एंव ब्रह्म को ही सत्य मानते हैं। संसार की असारता का वर्णन करते हुए कबीर ने कहा है –
- आडम्बरों का विरोध :- भक्तिकालीन कवि मिथ्या आडम्बरों का विरोध कर उन्हें त्यागने का संदेश देते हैं। कबीर तो समाज सुधारक के रूप में प्रसिद्ध हैं ही तुलसी भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं हैं।
कबीर झूठे पाखण्डी लोगों का उपहास करते हुए कहते हैं –
तुलसी जाति-पाँती का विरोध कर सभी को राम के प्रेम का पात्र मानते हैं –
- अहंकार का त्याग :- अहंकार परमात्मा से मिलन में बाधा पहुंचाता है। अंह भाव को त्याग कर ही जीव परमात्मा में एकरूप होता है।
कबीर कहते हैं –
तुलसी की भक्ति तो दैन्य-भाव की भक्ति है। तुलसी राम को अपना प्रभु मानते हुए स्वयं को उनका दास समझते हैं। वह माता सीता से प्रार्थना करते हुए कहते हैं –
स्वयं को अत्यधिक दीन, हीन, क्षीण समझकर तुलसी ने राम की कृपा की याचना की है।
- काव्य-रूप :- भक्तिकाल में काव्य-रचना के दो रूप परिलक्षित होते हैं । राम भक्तिशाखा के कवियों ने अधिकांशतः प्रबंध – काव्य में रचना की है तथा संतकवि मुक्तक रचना शैली को अपनाते हैं। ‘श्रीरामचरितमानस’ एंव ‘पद्मावत’ श्रेष्ठ प्रबंध – काव्य हैं तथा कबीर की साखियों में ज्ञान की अगाधता एंव सूर के पदों में प्रेम की सरसता भक्तजनों को आकण्ठ डुबो देती है।
- भाषा :- भाषा की दृष्टि से भक्तिकाल में अवधी एंव ब्रज दोनों क्षेत्रीय बोलियों का साहित्यिक विकास दृष्टिगत होता है। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में अवधी को चर्मोत्कर्ष प्रदान किया है तथा सूरदास का काव्य बृजभाषा के माधुर्य से मण्डित है।
निष्कर्ष :-
भक्तिकाल सभी दृष्टियों से साहित्य का सर्वोत्तम काल है। इसमें भाव एंव कला दोनों का उत्कृष्ट स्वरूप प्राप्त होता है। इसी काल में कबीर, रैदास, सूर, तुलसी, जायसी, रसखान एंव मीरा जैसे साधक हुए। इन्होंने भारत के ही नही, अपितु विश्व के लोगों को अपने काव्य द्वारा एक नवीन आलोक प्रदान किया, जिसमें वह अपना उचित मार्ग चुन सकें।