भारतेंदु युगीन साहित्यकारों में पंडित बालकृष्ण भट्ट का विशेष रूप से उल्लेखनीय स्थान है। कुछ विचारक उन्हें हिंदी का सर्वप्रथम निबंधकार स्वीकार करते हैं। जयनाथ ‘नलिन’ ने भट्ट जी की महत्ता को इन शब्दों में व्यक्त किया है:
“भारतेंदु युग के प्रौढ़ व्यक्तित्व में पंडित बालकृष्ण भट्ट ने आकार पाया । गंभीरता व्यंग्य का प्रभावशाली मिश्रण भट्ट जी में है।”
उन्होंने सन 1877 ई० में हिंदी वर्धिनी सभा की ओर से ‘हिंदी प्रदीप’ नामक पत्रिका का संपादन किया, जिसने हिंदी साहित्य की काफी सेवा और श्रीवृद्धि की । एक संपादक के रूप में उन्होंने ‘हिंदी प्रदीप’ को मानसिक विलासिता अथवा मिथ्या दम्भ का साधन कभी नहीं बनने दिया, अपितु उसे समाज सुधार का अस्त्र बनाया।
भारत वासियों की सामाजिक की सामाजिक दुर्दशा, स्त्रियों के दीन-हीन स्थिति, बढ़ती हुई फैशनपरस्ती, भिक्षा मांगने और देने की प्रवृत्ति, आलस्य, कुसंस्कार, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, पर्दाप्रथा, पारस्परिक फूट आदि सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर अपने निबंधों में व्यंग्य किए हैं। डॉ० राजेंद्र प्रसाद शर्मा के विचार अनुसार:
“पंडित बालकृष्ण भट्ट के सामाजिक विचार क्रांतिकारी थे। समाज को पतन और दीनता के गति में धकेलने वाली समस्त कुप्रथाओं का उन्होंने तीव्र विरोध किया। गतानुगतिक हिंदू-समाज की भेड़-चाल से उन्हें नफरत थी। हजारों वर्षों पुराने रीति-रिवाजों को सीने से चिपका कर जीने जीने रीति-रिवाजों को सीने से चिपका कर जीने वाले समाज पर उन्होंने उग्र प्रहार किए।”
पाखंडपूर्ण परंपराओं, निष्प्राण धर्म और रोगग्रस्त दर्शन, अस्वास्थ्यकार सामाजिकताओं को सबल ठोकर भट्ट जी सदा लगाते रहे- अपने विश्वासों में अडिग और निर्माण में सदा आशावादी। प्रकार, विषय-विविधता, व्यंग्यात्मकता, उदारता आदि की दृष्टि से भट्ट जी अपने युग के प्रतिनिधि निबंधकार तो हैं ही, विवेचन शैली, विचार-गाम्भीर्य, समीक्षा पद्धति के विचार से भावी लेखकों की प्रथम पंक्ति में वह मजे से खड़े किए जा सकते हैं। भट्ट जी ने अपने निबंधों की रचना विविध शैलियों में की है –
- भावात्मक शैली
- विवेचनात्मक शैली
- विचारात्मक शैली
- विवरणात्मक शैली
- वर्णनात्मक शैली
अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक विसंगतियों पर भट्ट जी ने लेखनी चलाई है और उन पर प्रहार किया। भट्ट जी के व्यंग्य का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत और व्यापक है, उनका व्यंग्य जीवन के सभी क्षेत्रों तक व्याप्त है। ‘पुरातन और आधुनिक सभ्यता’, ‘अकील अजीस रोग’, ‘दिल बहकाव से जुदे-जुदे तरीके’, ‘ईश्वर का ही ठठोल है’, ‘नमक निगोड़ी भी बहुबला है’, ‘खटका’, ‘गधे में गधहापन बचा है’, ‘चली सो चली’, ‘ हाकिम’, ‘ चलन की गुलामी’, ‘इंग्लिश पढ़े सो बाबू होए’ आदि भट्ट जी के व्यंग्य निबंध हैं।
“आत्मनिर्भरता” बालकृष्ण भट्ट का एक एक प्रसिद्ध निबंध है। इसमें उन्होंने आत्मनिर्भरता के स्वरूप, उसकी जीवन में आवश्यकता और आत्मनिर्भरता से जुड़ी समस्याओं पर प्रकाश डाला है। आत्मनिर्भरता अर्थात अपने भरोसे पर रहना। इसे भट्ट जी ने श्रेष्ठ गुण माना है जो पुरुषार्थता का परिणाम है। जो व्यक्ति अपने भरोसे जीता है वह चाहे कहीं भी रहे हमेशा आदरणीय होता है।
शारीरिक बल, चतुरंगिणि सेना का बल, प्रभुता का बल, ऊंचे कुल में पैदा होने का बल यह सब निज बल अर्थात व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्तियों के आगे झुक जाते हैं। जब तक व्यक्ति स्वयं बलवान नहीं है तब तक कोई भी बल काम नहीं आता। आत्मनिर्भरता सफलता का सच्चा और सरल पथ है। दूसरों के ऊपर निर्भर होने से अपना बल कम होता है और इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती है।
निबंधकार ने निबंध में आत्मनिर्भरता के रास्ते में समस्या मानते हुए भारत के भाग्यवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला है। यहां लोग अपने भाग्य के अनुसार जीते हैं जिसमें उनमें आलस्यता का दुर्गुण समाहित होता है। हिंदुस्तान की दयनीय दशा के लिए भी वह इस भाग्य वाद को कारण बताते हैं। भाग्यवाद के कारण लोग अपने भरोसे नहीं बल्कि भाग्य के भरोसे जीते हैं जिससे देश के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। यूरोप, अमेरिका, जापान आदि देशों में व्यक्ति स्वयं अपने भरोसे जीता है वह आत्मनिर्भर है इसलिए वे देश अत्यधिक विकसित है।निबंधकार के अनुसार भगवान भी उन्हीं लोगों के लिए सहायक होता है, जो स्वयं अपनी सहायता करते हैं। अपने आप की सहायता करना व्यक्ति के लिए विकासात्मक होता है।
आलसी व्यक्ति को तो कड़े से कड़ा कानून भी नहीं सुधार सकता है । जब तक व्यक्ति स्वयं अपने लिए नियम नहीं बनाता, दृढ़ निश्चय नहीं होता तब तक कोई भी कानून उसे नहीं सुधार सकता है। यहाँ निबंधकार कहता है-
“कड़े से कड़ा कानून आलसी समाज को परिश्रमी, अपव्ययी या फिजूल खर्च को किफायतशार या परिमित व्यवशील, शराबी को परहेजगार, क्रोधी को शांत या सहनशील, सूम को उदार, लोभी को संतोषी, मूर्ख को विद्वान ……….. व्यभिचारी को एक-पत्नी व्रतधर नहीं बना सकता, किंतु ये सब बातें हम अपने ही प्रयत्न और चेष्टा से अपने में ला सकते हैं।”
अतः किसी भी काम को करने में बाहरी सहायता इतना लाभ नहीं पहुंचा सकती जितना कि आत्मनिर्भरता।
इसके अतिरिक्त एक सुसभ्य समाज के लिए भी आत्मनिर्भरता का होना परम आवश्यक है। क्योंकि समाज, लोगों अथवा व्यक्तियों के समूह से बनता है और जब तक व्यक्ति आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक समाज भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता, उसकी स्थिति कमजोर रहेगी। एक सुसभ्य और विकसित समाज के लिए भी आत्मनिर्भरता का होना बहुत जरूरी है हर कौम जाति के विकास के लिए आत्मनिर्भरता बेहद जरूरी है भट्ट जी कहते हैं :
” जालिम से जालिम बादशाह की हुकूमत में भी रहकर कोई कौम गुलाम नहीं कहा जा सकता वरन गुलाम वही कौम है जिसमें एक एक व्यक्ति सब भांति क़दर्य, स्वार्थपरायण और जातीयता के भाव से रहित है। ऐसी कौम जिसकी नस-नस में दास्य भाव समाया हुआ है कभी तरक्की नहीं करेगी चाहे कैसी भी उदार शासन से शासित क्यों ना हो जाए।”
यहां निबंधकार का वक्तव्य यह स्पष्ट कर रहा है कि देश की स्वतंत्रता, मजबूत स्थिति, विकास सब कुछ एक-एक व्यक्ति की आत्मनिर्भरता पर आधारित है। जॉन स्टुअर्ट ‘मिल’ के अनुसार :
“राजा का भयानक से भयानक अत्याचार देश पर कभी कोई बुरा असर नहीं कर सकता जब तक उस देश के एक-एक व्यक्ति में अपने सुधार की अटल वासना दृढ़ता के साथ है।”
व्यक्ति की दुर्गति का कारण उसका आत्मनिर्भर ना होना है जब तक अपने आप के लिए कुछ करने का भाव व्यक्ति में पैदा नहीं होता तब तक उसका विकास भी असंभव है। आत्मनिर्भरता विद्या से ही नहीं आती बल्कि उच्च-महान लोगों की जीवनी का उनके चारित्रिक गुणों का अनुसरण करने से मनुष्य में पूर्णता आती है। जब तक उसका चित्त खुद के लिए कुछ करने के लिए दृढ़ नहीं होती तब तक उसका कल्याण भी नहीं हो सकता। देश के विकास के लिए भी व्यक्ति में स्वयं के लिए दृढ़ चिंतन शक्ति होना चाहिए। जब तक वह स्वयं कल्याण के लिए नहीं सोचता तब तक देश का कल्याण भी असंभव है। आत्मनिर्भरता ही व्यक्ति की सफलता का उपाय है जो एक मनुष्य को उसके चरित्र आत्मदमन, दृढ़ता, धैर्य, परिश्रम, स्थिर अध्यवसाय पर दृष्टि रखने से मिलती है।
आत्मनिर्भरता की राह में एक बड़ा रोड़ा सामाजिक कुप्रथा भी हैं। विशेषतः ‘बाल-विवाह’, बाल-विवाह पर आत्मनिर्भरता के भाव को कमजोर करता है। बाल्य-अवस्था में ही बच्चों की शादी कर देना उनकी मानसिकता को गहरा चोट पहुंचाती है। जहां दुनिया के अन्य देशों में पिता अपनी पुत्री के बेहतर भविष्य के लिए उसके जीवन यापन के लिए उसे अच्छी तालीम दिलाता है, उच्च-शिक्षा दिलाता है। वहीं इस देश का दुर्भाग्य समझ लीजिए कि पिता खुद अपनी पुत्री के भविष्य को नर्क में धकेल देता है उसका बाल विवाह करवाकर। जो बच्ची अपने मन के मनोभावों को भी ठीक तरह से नहीं समझ सकती, व्यक्त नहीं कर सकती उसको शादी जैसे बंधन में बंधना बहुत बड़ा अन्याय है। इसके कारण उसके भीतर की दृढ़ता कमजोर पड़ने लगती है, वह सदैव दूसरों पर आश्रित हो जाती है। उसके स्वयं की सोच, इच्छा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, सब दबा दिया जाता है। बाल-विवाह से बच्चों का कोमल हृदय आघात होता है, उनमें निर्भरता जैसे-जैसे होता है उनमें निर्भरता जैसे भाव का उद्घाटन कभी नहीं हो पाता। एक बच्ची को तालीम देने के बदले शादी जैसे बंधन में बांध देना उसकी सोच को भी बांध देना है। उसके विचारों का तो तभी गला घोट दिया जाता है जब उसमें विवेक बस चिंगारी मात्र होता है तब वह आत्मनिर्भर कैसे हो सकती है। जब तक एक लड़की की सोच नहीं हो सकती तब तक समाज की सोच भी नहीं बदल सकती। एक सोच एक नई सोच जो समाज में देश में बदलाव ला सकती है उसे कुचल देना बहुत बड़ा पाप है। आत्मनिर्भरता न होने का बाल-विवाह एक प्रधान कारण है। इसी का यह फल है कि हम नया कुंआ खोद नया स्वच्छ पानी पीना ही नहीं चाहते।
बाल-विवाह जैसी कुप्रथा के चलते बालिकाएं अपने अधिकारों से वंचित कर दी जाती हैं। बाल-विवाह न केवल बालिकाओं की सेहत के लिहाज से, बल्कि उनके व्यक्तित्व विकास के लिहाज से भी खतरनाक है। शिक्षा जो कि उनके भविष्य को उज्जवल द्वार माना जाता है हमेशा के लिए बंद हो जाता है। शिक्षा से वंचित रहने के कारण वह अपने बच्चों को शिक्षित नहीं कर पाती और फिर कच्ची उम्र में मां बनने वाली बालिकाएं न तो परिवार नियोजन के प्रति सजग होती है और न ही नवजात शिशुओं की उचित पालन पोषण में दक्ष। कुल मिलाकर बाल-विवाह का दुष्परिणाम व्यक्ति, परिवार को ही नहीं बल्कि समाज और देश को भी भोगना पड़ता है। भले ही आज यह देश तीव्र विकास की राह पर अग्रसर हो परन्तु यह कुप्रथा गरीब तथा निरक्षर तबके में जारी है। इस कुप्रथा का अंत होना बहुत जरूरी है। वैसे हमारे देश में बाल विवाह रोकने के लिए कानून मौजूद है लेकिन कानून के सहारे उसे रोका नहीं जा सकता। बाल-विवाह एक सामाजिक समस्या है। अतः इसका निदान सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। बालकृष्ण भट्ट कहते हैं:
“किसी का मत है कि मुल्क की तरक्की औरतों की तालीम से होगी; कोई कहता है विधवा-विवाह जारी होने से भलाई है; कोई कहता है खाने-पीने की कैद उठा दी जाए तो मुल्क की तरक्की की सीढ़ी पर लपक के चढ़ जाए। हम कहते हैं इन सब बातों से कुछ न होगा जब तक बाल्यविवाह रूपी कोढ़ हमारा साफ न होगा।”
निष्कर्ष:
एक सफल व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए आत्मनिर्भरता जैसा श्रेष्ठ गुण होना अनिवार्य है। आत्मनिर्भरता व्यक्ति को एक नई सोच प्रदान करती है जो कि उसके व्यक्तित्व की, अस्तित्व की परिचायिका होती है। एक सभ्य और सफल सोच ही समाज व राष्ट्र को सभ्य बना सकती है, उनका विकास कर सकती है। आत्मनिर्भरता ही व्यक्ति का बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास कर सकती है। आयम प्रगति का संकल्प आत्म-विकास के लिए बेहद जरूरी है।