सरहपा का जीवन परिचय | सिद्ध कवि सरहपा का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सरहपा

सिद्ध सरहपा, जिन्हें राहुलभद्र और सरोज-वज्र के नाम से भी जाना जाता है, तांत्रिक बौद्ध परंपरा के आदिम सिद्ध माने जाते हैं। वज्रयानी चौरासी सिद्धों में सरहपा का स्थान सबसे प्रमुख और आदिक सिद्ध के रूप में माना जाता है। उनके जीवन और कार्यों ने भारतीय तांत्रिक साधना परंपरा और साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

सिद्ध सरहपा पूर्वी भारत के निवासी थे, और उनके जन्म स्थान के बारे में ‘राज्ञी’ नामक नगर का उल्लेख मिलता है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह नगरी वर्तमान में कहाँ स्थित थी। सरहपा का समय पाल वंशीय राजा धर्मपाल (ई. 768-809) का समकालीन माना जाता है। जबकि डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने सरहपा का समय 633 ई. बताया है, महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका समय 769 ई. स्थिर किया, जो अब अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकार्य है।

सरहपा एक अत्यंत विद्वान व्यक्ति थे। उनके समय में प्रसिद्ध बौद्धिक और ज्ञान केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय से भी उनका जुड़ाव रहा था। यहाँ उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और संभवतः अध्यापक के रूप में भी कार्य किया। बाद के वर्षों में सरहपा ने बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा को अपनाया, जो तंत्र-मंत्र और गूढ़ साधना पर आधारित थी। उन्होंने आंध्र प्रदेश के श्रीपर्वत पर कठिन साधना की, जहां उन्होंने वज्रयान तंत्र की गूढ़ साधनाओं में सिद्धि प्राप्त की।

सिद्ध संप्रदाय और सिद्ध सरहपा

सिद्ध सरहपा का संबंध बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखाओं से था, जो बौद्ध धर्म के तांत्रिक मार्ग को अपनाते थे। सिद्धों को अद्वितीय आध्यात्मिक शक्तियों का स्वामी माना जाता था, जिन्हें “सिद्धि” प्राप्त होती थी। सरहपा 84 सिद्धों में अग्रणी माने जाते हैं। सिद्धों का मानना था कि आत्मज्ञान और मोक्ष केवल कठिन तपस्या और बाह्याचार से नहीं प्राप्त हो सकता, बल्कि इसे सहज और स्वाभाविक जीवन के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है। इस विचारधारा ने भारतीय साधना पद्धति में एक नई दृष्टि का संचार किया।

सिद्ध सरहपा की रचनाएं और भाषा शैली

सिद्ध सरहपा ने तांत्रिक बौद्ध परंपरा में रहते हुए कई महत्वपूर्ण रचनाएं कीं, जिन्हें उनकी आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि के साथ-साथ उनके समाज सुधारक दृष्टिकोण के लिए सराहा जाता है। सरहपा की रचनाएं मुख्य रूप से दोहा, गीति, और चर्यागीत के रूप में संरक्षित हैं। उनके काव्य में आत्मचिंतन, भौतिकता से विरक्ति, और आध्यात्मिक साधना का मेल मिलता है।

सरहपा की रचनाओं का उल्लेख तिब्बती ग्रंथों में मिलता है, और उनके कुछ दोहे अपभ्रंश में भी संरक्षित हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन रचनाओं का महत्वपूर्ण कार्य करते हुए हिन्दी में अनुवाद किया। उनके द्वारा किए गए अनुवाद ने सरहपा के काव्य को हिन्दी साहित्य के आरंभिक दौर के रूप में स्थापित किया।

प्रमुख रचनाएं:

  1. दोहाकोश: यह सरहपा की सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। इसमें सरहपा ने दोहों के माध्यम से मानव जीवन, साधना और समाज में व्याप्त रूढ़ियों की आलोचना की है। यह रचना तांत्रिक और सहजयान परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है। राहुल सांकृत्यायन ने इस कृति का अनुवाद और संपादन किया है।

  2. गीतिकाश: सरहपा की यह रचना गीतात्मक शैली में है, जिसमें उन्होंने जीवन के रहस्यों और आध्यात्मिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है। इसमें बौद्ध तांत्रिक साधना के गहरे रहस्यों को गीति के रूप में व्यक्त किया गया है।

  3. दोहाकोश नाम चर्यागीति: इस रचना में सरहपा ने बौद्ध तांत्रिक साधना की विधियों और उससे जुड़े आध्यात्मिक अनुभवों को गीतात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। इस रचना को चर्यागीत परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।

  4. दोहाकोशोपदेश गीति: यह रचना उपदेशात्मक शैली में है, जिसमें सरहपा ने साधना की महत्वपूर्ण विधियों और जीवन के गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।

  5. कायकोशामृतवज्रगीति: इस रचना में सरहपा ने काया (शरीर) और आत्मा के बीच के संबंधों पर प्रकाश डाला है। इसे आत्मा और शरीर के रहस्यों पर गहन दृष्टि माना जाता है।

  6. चित्तकोशाजवज्रगीति: यह रचना सरहपा की अद्वितीय कृति है, जिसमें चित्त (मन) की अवस्था और उसकी साधना के द्वारा परमसुख की प्राप्ति पर प्रकाश डाला गया है।

  7. वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति: इस रचना में वाणी की महिमा और उसकी साधना के द्वारा जीवन में समृद्धि और आध्यात्मिक सफलता के विषय पर चर्चा की गई है।

  8. महामुद्रोपदेश: यह रचना महामुद्रा साधना पर आधारित है, जिसे सरहपा ने तांत्रिक बौद्ध साधना का एक प्रमुख हिस्सा माना। इस रचना में उन्होंने साधना की गूढ़ विधियों को सरल रूप में प्रस्तुत किया है।

  9. द्वादशोपदेशगाथा: यह रचना सरहपा के 12 उपदेशों का संग्रह है, जिसमें उन्होंने साधना और जीवन के गहरे तत्वों को उपदेशात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।

  10. स्वाधिष्ठानक्रम: इस रचना में स्वाधिष्ठान (एक योगिक चक्र) की साधना और उसके माध्यम से आत्मसाक्षात्कार की विधियों को विस्तार से बताया गया है।

  11. तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीति: सरहपा की इस रचना में तत्त्वज्ञान की गहरी व्याख्या की गई है, जिसमें उन्होंने ब्रह्मांड और जीव के संबंध पर तांत्रिक दृष्टिकोण से प्रकाश डाला है।

  12. वसंत-तिलकदोहाकोशगीतिका: इस रचना में सरहपा ने वसंत के माध्यम से आध्यात्मिक जागरण और साधना के अनुभवों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया है।

  13. महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति: यह रचना सरहपा की बौद्ध तांत्रिक साधना की गहराइयों पर आधारित है, जिसमें उन्होंने महामुद्रा की साधना की विधियों और उससे प्राप्त होने वाले अनुभवों को गीतात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।

संस्कृत रचनाएं:

  1. बुद्धकपालतंत्रपंजिका
  2. बुद्धकपालसाधन
  3. बुद्धकपालमंडलविधि
  4. त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन
  5. त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन

राहुल सांकृत्यायन ने सरहपा की इन संस्कृत रचनाओं को भी उनके काव्य की प्रारंभिक रचनाओं के रूप में स्वीकार किया है।

भाषा और शैली:

सरहपा की भाषा अपभ्रंश है, जो हिन्दी का आरंभिक रूप मानी जाती है। उनकी रचनाओं में सरलता, सहजता और जीवन के गहन रहस्यों को व्यक्त करने की अद्वितीय क्षमता दिखाई देती है। सरहपा ने अपनी रचनाओं में अधिकतर दोहा और चर्यागीत की शैली का प्रयोग किया है, जो तांत्रिक बौद्ध परंपरा और सहजयान साधना का प्रतीक है।

उनकी रचनाओं में जीवन की जटिलताओं, धार्मिक पाखंड और सामाजिक असमानताओं की आलोचना गहरी है। उनका काव्य भारतीय साधना परंपरा का प्रतीक है, जिसमें उन्होंने केवल आध्यात्मिक और तांत्रिक विषयों पर नहीं, बल्कि सामाजिक विषमताओं और धार्मिक आडंबरों पर भी प्रहार किया है।

उदाहरण:

  1. “जहँ मन पवन न संचरइ, रवि ससि नाह पवेस। तहि वट चित्त विसाम करू, सरेहे कहिअ उवेस।।”

  2. “पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ। देहहि रुद्ध बसंत न जाणइ। अमणागमण ण तेन विखंडिअ। तो विणिलज्जइ भणइ हउँ पंडिय।।”

इन दोहों में सरहपा ने साधना की गहराइयों, मानसिक शांति और सामाजिक सुधार पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनकी काव्य शैली में प्रतीकात्मकता, सरल भाषा, और गूढ़ अर्थ का अद्भुत समन्वय है। सिद्ध सरहपा का काव्य केवल आध्यात्मिक साधना का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह तत्कालीन समाज के धार्मिक और सामाजिक पाखंडों पर गहरी चोट करता है। उनकी रचनाएं सरलता और गहराई का अद्भुत संगम हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं। सरहपा ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय साहित्य को नई दिशा दी और हिन्दी साहित्य के आदिकाल की नींव रखी। उनकी भाषा और शैली में वह सादगी और प्रबलता है, जिसने उन्हें हिन्दी साहित्य का पहला कवि बनाया।

प्रमुख विचार और दर्शन

सिद्ध सरहपा ने समाज में व्याप्त धार्मिक आडंबरों और पाखंडों का विरोध किया। वे धार्मिक बाह्याचार और कर्मकांड के खिलाफ थे और लोगों को यह संदेश दिया कि मोक्ष या परमात्मा की प्राप्ति कठिन तपस्या या धार्मिक रीति-रिवाजों से नहीं, बल्कि सहज जीवन से संभव है। उनका दर्शन मानवीय सरलता, सहजता और संतुलन पर आधारित था।

सरहपा ने आत्मा, परमात्मा और संसार के संबंध में गहरे विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि परम तत्व न एक है, न दो; न अद्वैत है, न द्वैत। उनके अनुसार, परमपद को समझा नहीं जा सकता, क्योंकि वह शब्दों से परे है। उनका यह दार्शनिक दृष्टिकोण उनके रहस्यवादी विचारधारा को दर्शाता है।

प्रमुख विचार:

  • आत्मा और संसार शून्य हैं, और शून्यता ही परमपद है।
  • मोक्ष कठिन तपस्या से नहीं, बल्कि सहज और सरल जीवन से प्राप्त किया जा सकता है।
  • संसार का वास्तविक स्वरूप चित्त के स्वभाव में निहित है, और चित्त की सहज अवस्था ही सिद्धि की प्राप्ति का मार्ग है।

समाज और धर्म पर आलोचना

सरहपा ने अपने समय के सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाओं की कठोर आलोचना की। उन्होंने ब्राह्मणवाद के बाह्याचारों और कर्मकांडों का विरोध किया और जाति व्यवस्था की आलोचना की। उनके विचारों में यह स्पष्ट है कि वे समाज में व्याप्त असमानता, अंधविश्वास और धार्मिक आडंबरों के घोर विरोधी थे।

उनकी रचनाओं में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि वे न केवल ब्राह्मणवादी कर्मकांडों के खिलाफ थे, बल्कि जैनियों, शैवों और पाशुपतों के बाह्याचारों की भी आलोचना करते थे। उनके विचारों का प्रभाव आगे चलकर संत साहित्य पर भी पड़ा, जिसमें कबीर, दादू और अन्य निर्गुण संतों की रचनाओं में सरहपा की आलोचनात्मक दृष्टि दिखाई देती है।

उदाहरण:

“यदि नंगे रहने से मोक्ष मिलता है, तो कुत्ते और सियार को भी मोक्ष मिलना चाहिए क्योंकि वे भी नंगे रहते हैं।”

प्रमुख विद्वानों के मत

महापंडित राहुल सांकृत्यायन: राहुल जी ने सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि माना और उनके दोहों को हिन्दी साहित्य का आरंभिक रूप बताया। उन्होंने सरहपा की रचनाओं को अपभ्रंश से हिन्दी में अनुवादित किया और उनके जीवन तथा कृतित्व को समाज के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। राहुल जी ने सरहपा की रचनाओं की सरलता और उनके विचारों की गहराई की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारतीय साधना परंपरा का एक अग्रणी सिद्ध माना।

डॉ. रामकुमार वर्मा: वर्मा जी ने सरहपा के काव्य में हिन्दी कविता के आदिकालिक स्वरूप को पहचाना और उन्हें हिन्दी का पहला कवि स्वीकार किया। उनके अनुसार, सरहपा की रचनाओं में हिन्दी भाषा का प्रारंभिक विकास दिखाई देता है और उनकी काव्य शैली में सहजता और गहनता का अद्भुत संतुलन है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी: आचार्य द्विवेदी ने सरहपा को 84 सिद्धों में प्रमुख स्थान दिया और उनकी रचनाओं को सहजयान परंपरा की प्रतिनिधि कृतियां माना। उन्होंने सरहपा के दोहों में व्याप्त सामाजिक और धार्मिक आलोचना की गहनता पर भी प्रकाश डाला। उनके अनुसार, सरहपा ने उस समय की धार्मिक पाखंडता और जातिगत असमानता के खिलाफ क्रांतिकारी विचार प्रकट किए थे।

डॉ. बच्चन सिंह: डॉ. बच्चन सिंह ने सरहपा के काव्य में “आक्रोश की भाषा” का पहला प्रयोग माना। उन्होंने सरहपा के काव्य को विद्रोह और समाज में व्याप्त असमानता और शोषण के खिलाफ एक सशक्त माध्यम के रूप में देखा। डॉ. सिंह के अनुसार, सरहपा के काव्य में संत साहित्य की पूर्वभूमि तैयार की गई है।

डॉ. नगेंद्र: डॉ. नगेंद्र ने सरहपा के काव्य में भारतीय रहस्यवाद और बौद्ध दर्शन की गहरी छाप देखी। उनके अनुसार, सरहपा के दोहों में जीवन और मृत्यु, आत्मा और परमात्मा के गूढ़ रहस्यों का वर्णन है, जो तत्कालीन समाज की धार्मिक और दार्शनिक जिज्ञासाओं का उत्तर प्रदान करते हैं।

डॉ. धर्मवीर भारती: डॉ. धर्मवीर भारती ने सिद्ध साहित्य पर अपने शोध में सरहपा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने सरहपा के काव्य को तांत्रिक साधना और रहस्यवाद का संगम माना, जो भारतीय समाज की आध्यात्मिक जड़ों को गहराई से व्यक्त करता है। उनके अनुसार, सरहपा का व्यक्तित्व और उनका काव्य तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का एक सूक्ष्म चित्रण है।

डॉ. विश्वंभर नाथ उपाध्याय: उपाध्याय जी ने सरहपा के जीवन और कृतित्व पर गहन शोध किया और उन्हें ‘सिद्ध साहित्य’ का एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना। उनकी पुस्तक “सिद्ध सरहपा” में सरहपा के व्यक्तित्व, काव्य और उनके दर्शन पर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। उनके अनुसार, सरहपा की रचनाएं भारतीय साधना परंपरा और समाज में परिवर्तन के प्रतीक हैं।

चंद्रधर शर्मा गुलेरी: गुलेरी जी ने सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि मानते हुए उनके काव्य में बौद्ध धर्म और भारतीय साधना परंपरा के गहरे प्रभाव को दर्शाया। उनके अनुसार, सरहपा की रचनाएं भारतीय समाज के धार्मिक और दार्शनिक मंथन का प्रतिनिधित्व करती हैं और वे तत्कालीन बौद्धिक परिदृश्य के प्रमुख स्तंभ हैं।

सिद्ध सरहपा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विद्वानों के ये विविध मत इस बात का प्रमाण हैं कि सरहपा केवल हिन्दी साहित्य के प्रथम कवि नहीं थे, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज, दर्शन और साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। उनके विचार और रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और उनके जीवन दर्शन से समाज और साहित्य को दिशा मिलती रही है।

सिद्ध सरहपा भारतीय साहित्य, विशेष रूप से हिन्दी साहित्य के आदिकाल में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके काव्य और विचारों ने न केवल धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी, बल्कि सहज और सरल जीवन की परिकल्पना को भी स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने तांत्रिक बौद्ध साधना के माध्यम से न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाया, बल्कि समाज में व्याप्त पाखंडों और आडंबरों पर तीखा प्रहार किया। उनकी रचनाएँ जैसे दोहाकोश, और उनके विचार आज भी प्रेरणादायक बने हुए हैं। सरहपा का योगदान भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है, जिसे समाज सुधार और साहित्यिक विकास दोनों के संदर्भ में सदैव याद किया जाएगा। उनके सिद्धांत और शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का स्रोत बनी रहेंगी।

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