भारतेन्दु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850 – 6 जनवरी 1885) हिंदी साहित्य के पितामह और आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक माने जाते हैं। अपने अल्प जीवन में उन्होंने साहित्य, पत्रकारिता, समाज-सुधार और संस्कृति के क्षेत्रों में अभूतपूर्व योगदान दिया, जिसके कारण उनका नाम आज भी हिंदी साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। भारतेन्दु ने हिंदी भाषा को एक नया स्वरूप दिया और साहित्यिक जगत में खड़ी बोली हिंदी को प्रतिष्ठित किया। उनके साहित्यिक कार्यों के कारण 1857 से 1900 के काल को “भारतेन्दु युग” के नाम से जाना जाता है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को काशी (वाराणसी) के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता गोपालचंद्र एक प्रसिद्ध कवि थे, जो ‘गिरधरदास’ उपनाम से कविता लिखते थे। भारतेन्दु ने अपने पिता से ही काव्य-प्रतिभा का प्रारंभिक संस्कार प्राप्त किया। मात्र पांच वर्ष की आयु में उन्होंने एक दोहा रचकर अपने पिता से कवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया।
उनके माता-पिता का निधन उनके बचपन में ही हो गया, जिसके कारण वे बहुत छोटी उम्र में ही अनाथ हो गए। उन्होंने काशी के क्वींस कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की, लेकिन नियमित शिक्षा में उनकी रुचि कम थी। हालांकि उनकी स्मरण शक्ति और ग्रहण क्षमता अद्भुत थी, जिसके बल पर उन्होंने स्वाध्याय के माध्यम से संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली, उर्दू और गुजराती जैसी कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया।
उनके व्यक्तित्व का विकास काशी की साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा में हुआ। उनकी शिक्षा का असली स्रोत उनका परिवेश, समाज और अपने समय के विचारक थे, जिनसे उन्होंने गहरे प्रभावित होकर स्वाधीन सोच और रचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका व्यक्तित्व विविधतापूर्ण था, जिसमें एक ओर उन्होंने साहित्यकार के रूप में ख्याति अर्जित की, तो दूसरी ओर समाज-सुधारक और राष्ट्रभक्त के रूप में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका व्यक्तित्व निम्नलिखित विशेषताओं से युक्त था:
राष्ट्रभक्त और समाज सुधारक: भारतेन्दु ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज की समस्याओं पर गंभीर चिंतन किया। उन्होंने ब्रिटिश शासन की शोषक नीतियों की कड़ी आलोचना की और अपने लेखन में देश की गरीबी, पराधीनता और सामाजिक असमानता का सजीव चित्रण किया। वे हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने व्यापक स्तर पर प्रयास किए।
सृजनशील लेखक: भारतेन्दु जी का रचनात्मक लेखन बहुआयामी था। वे एक कुशल कवि, नाटककार, गद्यकार और व्यंग्यकार थे। उनके लेखन में भाषा की सरलता, विचारों की स्पष्टता और समाज के प्रति जागरूकता का अद्वितीय मिश्रण देखने को मिलता है।
पत्रकारिता में अग्रणी: हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतेन्दु का योगदान भी अतुलनीय रहा। उन्होंने हिंदी भाषा में कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और प्रकाशन किया, जैसे ‘कविवचनसुधा’, ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’, और ‘बाला बोधिनी’। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने देश और समाज की समस्याओं पर प्रकाश डाला और हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र का साहित्यिक योगदान इतना विशाल और विविधतापूर्ण है कि उन्हें हिंदी साहित्य के नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है। उनके कृतित्व के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं:
नाटक: भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिंदी नाटक के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को एक नया रूप दिया। उनके नाटकों में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं का सजीव चित्रण मिलता है। उनके प्रमुख नाटकों में ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’ शामिल हैं। ये नाटक न केवल मनोरंजन के लिए लिखे गए थे, बल्कि समाज में व्याप्त बुराइयों और ब्रिटिश शासन की नीतियों पर गहरा व्यंग्य करते थे।
कविता: भारतेन्दु की कविताओं में समाज और देश की स्थिति का मार्मिक चित्रण मिलता है। उनकी रचनाओं में राष्ट्रप्रेम, सामाजिक समस्याओं पर चिंता और लोककल्याण की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उनका दोहा “लै ब्यौढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान…” उनकी काव्य प्रतिभा का उदाहरण है।
गद्य साहित्य: भारतेन्दु ने अपने गद्य लेखन में हिंदी भाषा की शक्ति और सरलता को स्थापित किया। उनके गद्य में शैली की सहजता, विचारों की स्पष्टता और भाषा की सजीवता देखी जा सकती है। उनके निबंधों और व्यंग्य लेखों में समाज और राजनीति की गहरी समझ और आलोचना मिलती है।
पत्रकारिता: भारतेन्दु ने हिंदी पत्रकारिता को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ (1868), ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ (1873) और ‘बाला बोधिनी’ (1874) जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। ये पत्रिकाएँ हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में मील का पत्थर साबित हुईं।
समाज सेवा: साहित्य और पत्रकारिता के अलावा भारतेन्दु ने समाज सेवा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कई सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना की और वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए ‘तदीय समाज’ की स्थापना की। उन्होंने दीन-दुखियों और साहित्यकारों की सहायता करना अपना धर्म माना।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के ऐसे युगपुरुष थे, जिन्होंने न केवल साहित्यिक जगत में नए प्रतिमान स्थापित किए, बल्कि समाज, राजनीति और राष्ट्रभक्ति की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें साहित्य, पत्रकारिता और समाज सुधार के क्षेत्रों में अमर कर दिया। मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने जितना साहित्य रचा और जितने सामाजिक कार्य किए, वह आज भी हिंदी साहित्य और समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उनका जीवन और कृतित्व भारतीय नवजागरण का प्रतीक है, जिसमें साहित्य और समाज की गहरी समझ और संवेदनशीलता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
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